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sfa faster fre ! स्वदशां कि,
हस खेदमुपैसि कृशां गतिम् । गतिरियं जगतः सकलस्य यद्,
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भवति तद्गणना तव तत्र का ॥ विस्तार भय के कारण अन्य रसों का केवल निर्देश मात्र किया जा रहा है । वीररस १.२२, अद्भुतरस २.५ शृंगार ४.१ - १२ आदि द्रष्टय हैं ।
प्रकृति-चित्रण
भारतीय काव्य परम्परा में प्रकृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है । लगभग सभी साहित्याचार्यों एवं लक्षण शास्त्रियों ने प्रकृति के महत्त्व को स्वीकार किया है । ४१
प्रकृति जड़ नहीं चेतन है । वह मानव के सुख-दुःख में सहायिका है । कालिदास की शकुन्तला प्रकृति - कन्या है । वह पतिगृह जाती है तो पिता कण्व को कौन कहे समस्त अरण्य के पशु-पक्षी, वृक्षलताएं रोदन कर रही हैं। इस परम्परा में हमारा विवेच्य कवि पीछे कहां है ? वृक्ष पुष्प, लता, पर्वत, रात्री आदि का मानवीकरण कर कवि ने अपने विशालहृदय का परिचय दिया है । राजा के प्रति वृक्षों की वाणी उनकी ( वृक्षों की ) महनीयता एवं सदाशयता को संसूचित तो करती ही हैं साथ ही यह भी उद्घाटित होता है कि कवि भी उसी प्रकार का विराट् चित्त वाला है। वृक्षों की महनीयता का उदाहरण द्रष्टव्य है :
छिन्दन्ति भिन्दन्ति जनास्तथापि,
पूत्कुर्महे नो तव सन्निधाने । क्षमातनूजा इति संप्रधार्य,
क्षमां वहामो न रुषं सृजामः ॥ *
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रत्नवती विरहिता होकर वन्यवृक्षों से सहातार्थ अनुरोध करती है । बदरी से कहती है :
विसदृश कण्टकयोः समकालं,
प्राप्त जन्मनोनिदर्शनेन ।
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भाग्य विविधतां सूचयसि त्वं,
किं न तथा मम पतिमपि बदरि ! ॥ **
इसी प्रकार मेरु पर्वत ( २.३५), कमल (१.९) सूर्य (१.१) रात्री ( ३ / १-९) चन्द्र (२.२४) उल्लू (१.६) हाथी (१.१६) आदि द्रष्टव्य हैं ।
भाषा-शैली
कवि की भाषा व्यक्तित्व के अनुरूप ही होती है। परिशुद्ध संस्कृत भाषा का प्रयोग हुआ । भावों के विन्यास, अभिव्यक्ति मनोरमता, सूक्ति-साधुता रूप्य चित्रण, हृद्य भावों का काव्य में सहजता विद्यमान हैं । लोकन्यायों के प्रयोग से भाषा ही सन्यस्त है ।
विवेच्य काव्य में परिस्कृत,
कोमल - कल्पना - चारूता
भावन आदि प्रस्तुत में संप्रेषणीयता सहज
तुलसी प्रज्ञा