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भूमि - शयन, स्वप्नदर्शन, उनिद्रा आदि विरहदशाओं का सुन्दर विश्लेषण विन्यस्त है । जैसे विरहविधुरा विधाता की आद्या सृष्टि यक्षिणी अवनिशयन करती है। वैसे ही श्रीपत्तनकुमारी राजा - रत्नपाल की विछुड़न-वेदना में भूमि को ही शय्या बनाती है :
राजसुता सुकुमारशरीरा,
शान्तरस
या मृदुतल्पे शयिता नित्यम् ।
सम्प्रति रागः किं नहि जनयेत् । १५
अन्त में वह युवति जिस प्रेम मार्ग पर बढ़ चली थी उसको पूर्ण करती हुई दिखाई पड़ती है । शाश्वत शिवभूत मोक्ष-पथ का अनुगामी बनती है ।
वृक्षादि प्रकृति- जगत् के चरित्र उत्कृष्ट एवं सरसशैली में निरूपित है | मानवीकरण इनका मुख्य वैशिष्ट्य है ।
रस
सा विपिने कठिने भूभागे,
जिसका आस्वादन किया जाए वह रस है । 'रस्यते आस्वाद्यते इति रसः' अर्थात् जिसके द्वारा भावों का आस्वादन किया जाए वह रस है— 'अ(स्वाद्यत्वाद्रसः ।' रसात्मक वाक्य को काव्य कहा जाता है- 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम् । 31 रस काव्य का प्राण तत्त्व माना जाता है ।
रत्नपाल चरित में अनेक सुन्दर रसो का सन्निवेश है । इसमें शान्तरस प्रमुख है ।
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तत्त्वज्ञान या वैराग्य के कारण शान्तरस उत्पन्न होता है । इसका स्थायिभाव निर्वेद है । आचार्य हेमचन्द्र ने तृष्णा क्षय रूप शम को शान्तरस का स्थायिभाव माना है
तृष्णाक्षय रूपः शमः स्थायिभावः प्राप्तः शान्तोरसः । ७
शम स्थायिभाव युक्त शान्तरस को मोक्ष प्रवर्तक कहा गया है-
अथ शान्तोनाम शमस्थायिभावात्मको मोक्षप्रवर्तकः । सतु तत्वज्ञान वैराग्याशय शुद्धयादिर्भािवभावैः समुत्पद्यते ॥ "
तत्त्वज्ञान, वैराग्य चित्तशुद्धि आदि विभावमय, नियम, उपासना, व्रत, दयादि अनुभाव, निर्वेद स्मृति, धृति, शौच, स्तंभ, रोमांच आदि व्यभिचारी भाव के सहयोग से शम रूप स्थायिभाव निर्वेद दशा को प्राप्त होता है | 33
विवेच्य काव्य का अंगीरस शांत है । कभी रत्नवती राजा के विरह में प्रकृति के कण-कण में रत्नपाल की कल्पना करती थी अब वह शान्तरस को सरिता का अवगाहन कर धन्य-धन्य हो गयी । जो प्रिय थे तत्त्वज्ञान के उदय होते ही वे निस्सार हो गए। लता के साथ संभाषण के ब्याज से संसार की असारता का उद्घाटन द्रष्टव्य है :
खण्ड १८, अंक ४
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