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किया गया है। कवि इस कला में (चरित्र निरूपण कला में) दक्ष प्रतीत होता है। . मंत्री
मंत्री का चरित्र विवेच्य काव्य में अत्यन्त उदात्त है। वह दो बार काव्य में उपस्थित होता है : प्रथम तृतीय सर्ग में राजा को खोजते हुए और पुनः पांचवें सर्ग में मुनि के साथ वार्तालाप करते हुए या मुनि की पर्युपासना करते हुए दिखाई पड़ता है। वार्ता प्रसंग में सचिव का चरित्र प्रतिबिम्बित होता है—मंत्री राजा का सदा अनुगामी होता है । वह राजा का दूसरा हृदय होता है :
द्वैतीयीकमिलाधवस्य हृदयं मन्त्री कृतज्ञो भवेत् । यत्रानुग्रह निग्रही नरपतेस्तत्रैव तस्यापि च ॥ दुःखी दुःखिनि भूपतौ सुखिनि वा सौख्यं श्रितश्चिन्तिते ।
चिन्तावांश्च विरञ्जिते विरति मानात्मेक्य मेवाऽथवा ॥ यहां महाकवि भास के 'स्वप्नवासवदत्ता' नाटक के नायक उदयन के निजि-सचिव की दशा से रत्नपाल-सचिव का चरित्र तुलनीय है ।३१ रत्नवती
श्रीपत्तननगर के नृपत्ति की सुन्दरी कन्या रत्नवती इस चरितकाव्य की नायिका है। उसके चार रूप इस काव्य में द्रष्टव्य है। राजा रत्नपाल पर आसक्त यौवनधन्या मुस्कराती हुई कुमारी, विरहव्यथिता, भव्या तथा दीक्षिता-साध्वी। .
राजा रत्नपाल के प्रेम में आसक्त, जवानी के सौध-शिखर पर आरूढ़ हंसती बाला का सौन्दर्य दर्शनीय है :--
स्मितानना कणितपूर्ववार्ते
__वारब्ध कश्चिद् वचनाभिलापम् ॥२ राजा के अगोचर हो जाने पर युवती राजा के विरह में व्यथित होती हुई साधारणीकरण की भूमिका में पहुंच जाती है, जहां व्यक्ति पहुंचकर सम्पूर्ण संसार को प्रियतम बना देता है । सम्पूर्ण चतुर्थ-सर्ग उसके मार्मिक विरह चित्रण में ही समर्पित है। 'विक्रमोर्वशीय' के उर्वशी प्रेम में पागल उन्मत्त पुरुरवा से इस कुमारी की दशा मिलती-जुलती है। जैसे पुरु प्रकृति के एक-एक कण से पूछता है "क्या तुम मेरे प्रिया को देखे हो' उसी प्रकार यह युवति भी अपने हृदय-रत्न का पता सृष्टि के हर जड़-चेतन प्राणी से पूछती है, सहायता मांगती है :-हे सहकार तू मेरे कार्य में सहकारी होवो :
सहकार ! त्वं भव सहकारी,
कामितनिष्पतौ सम्पन्नः। कलरवमासादयति त्वतः,
पिको न कि पतिमपि लप्स्येऽहम् ॥" अशोक से शोकरहित करने की प्रार्थना करती है :नाऽशोकां कुरुषे किमशोक !
मां च सशोकां प्रियविरहेण ।४
तुलसी प्रज्ञा