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राजा (को पति रूप में) पाकर वसुमती (पृथ्वी) प्रफुल्लित होती है :अहह ! मेदुरमोद समन्विता,
वसुमती सति तत्र विभावभुत् । धवमवाप्य मनोरुचि
भवति ललना ललिताशया ॥" गवित (स्वभिमानो) राजा
प्रथम सर्ग में राजा सूर्य के साथ स्पर्धा करते हुए स्वाभिमानी राजा के रूप में दिखाई पड़ता है। प्रस्तुत प्रसंग में सूर्य से राजा की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया गया है । सूर्या भी उसकी सपर्या के लिए लालायित है :
अहर्निशं पाति भयान्मनुष्यानऽयं,
दिनेष्वेव ममांशुराशिः । इतीव तस्याऽवनिपालमौले,
सूर्यः सपर्येच्छुरिवोन्मुखोऽभूत ॥४ भ्रमणशील
एक सभासद से 'न मन्दिरस्थस्य भवेत् प्रसिद्धिबिना प्रदेशाटनमत्र लोके'२५ अथात् प्रदेश के बिना प्रसिद्धि नहीं होती है इसलिए सूर्य घूम रहा है। ऐसा सुनकर राजा देशभ्रमण के लिए निकल जाता है ।"भ्रमण-प्रसंग में ही एक अदृश्य युवति उसके गले में माला डालकर स्तुति करती है ।" स्तुति में राजा के अनेक गुणों का प्रतिपादन किया गया है। वह शत्रु रूप अंधकार के लिए सूर्य के समान, जगत् के लिए अगम्य गति वाला, रम्यमति से युक्त, पुण्य कमल के सरोवर, वाञ्छाफल प्रदायक कल्पवृक्ष, कविस्तुत्य, सम्पूर्ण पृथ्वी का अधिपति, लक्ष्मीपति, नवमंगल के कर्ता एवं जगदोद्धारक है।
रत्नपाल अतिशय विद्याबल से युक्त तो था ही संतोष रूप अलभ्यगुण से अलंकृतभी था । आत्मबल एवं विद्याबल से युवति के अपहृत राज्य को जीतकर सहर्ष वापस लौटा देता है : विद्याबलादात्मबलातिरेकाद्,
विजित्य तं राज्यमथो ददेऽस्मै । नैवोत्तमा लोभलवं स्पृशन्ति,
यतो न लोभात् परमस्ति पापम् ॥४ वह जाति-स्मृति-ज्ञान से विभूषित होता है। उसे स्मरण होता है कि वह पूर्व जन्म में एक दरिद्र ब्राह्मण था । एक मुनि द्वारा महामंत्र प्राप्त कर मन्त्र प्रभाव से राजा रत्नपाल के रूप में उत्पन्न हुआ।
मन्त्रस्य सोऽयं महिमाऽवगम्यो,
जातः स एवाहमिलेश सूनुः ॥" पांचवें सर्ग में उसका दर्शन महाव्रत-शील अधिरूढ़ मुनि के रूप में होता है । इस प्रकार राजा रत्नपाल के रूप में एक सफल चरित-नायक का उपस्थान
खण्ड १८, अंक ४
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