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________________ समय हो जाने पर उसके राज्य का मंत्री राजा को खोजने के लिए निकलते हैं । घूणाक्षर - न्याय से मंत्री और विरहिणी कुमारी का मिलन हो जाता है । तदनन्तर राजकुमारी का निर्देश पाकर मंत्री रत्नपाल का जीवनवृत्त बताता है । वह दक्षिण के समृद्ध नगर शक्रपुर के राजा चन्द्रकीर्ति का पुत्र है। उसकी माता का नाम चन्द्रकान्ता है । कुमार रत्नपाल का विवाहादि गार्हस्थिक संस्कारों के बाद राज्य पर अभिषिक्त कर चन्द्रकीर्ति पत्नी सहित अरण्यवास करते हैं, रत्नपाल जैसे प्रजावत्सल नरेश को पाकर वसुमती प्रसन्न होती है । सात श्लोकों में राजा और पृथ्वी का संवाद निबद्ध है, जिसमें पृथ्वी की महनीयता एवं श्रेष्ठ राजा के गुणों का निरूपण किया गया है । तदनन्तर मंत्री अपनी अभीप्सा प्रकट करता है कि जैसे कमलवैभव में सूर्य को वापस लाने का उत्साह होता है उसी प्रकार राजा को वापस ले जाने के लिए मैं हूं। चतुर्थ सर्ग विरहकाव्य की दृष्टि से उत्कृष्ट है । वृत्तान्त सुनकर राजकुमारी राजा को खोजने के लिए अरण्य में निकल जाती है । अरण्य से उसके बारे में पूछती । पुनः अरण्य के प्रत्येक वृक्ष से अपने प्रियतम अन्वेषण के लिए सहायता मांगती है । इस प्रसंग में विरह की उत्कटता एवं उसके विभिन्न दशाओं का वर्णन रसमयी प्राञ्जल भाषा में किया गया है । रात्री का वर्णन, भूमिशयन, स्वप्नदर्शन, नींद का उचटना आदि विरह - अवस्थाएं वर्णित हैं। राजकुमारी को अपने भ्रम का ज्ञान होता है । संसार की विरसता एवं मोहरूपता को देखकर उसका मन विरक्त हो जाता है । रास्ते में एक मुनि का दर्शन होता है जो एक मंत्री के द्वारा सेवित हो रहा था । मुनि धर्मलाभ देता है तथा अपनी राम कहानी सुनाता है । पांचवां सर्ग मुनि और मंत्री के वार्तालाप से प्रारंभ होता है । इसमें राजनीति सचिव भी दीक्षित होना के अनेक गुह्य रहस्यों का काव्य-भाषा में निरूपण हुआ है। चाहता है। मुनि ( जो रत्नपाल ही था) के प्रभाव से राज्य की समृद्धि का वर्णन सचिव करता है । रत्नवती भी दीक्षित होकर साध्वी बन जाती है । कल तक जो कुमारी विरह व्यथा के कारण प्रकृति के प्रत्येक कण में रत्नपाल को देखती थी, आज वह सर्वत्र अगाध - शान्तरसाम्बुधि का अवलोकन करने लगी । सृष्टि के हर पदार्थ में उसे शान्त-निष्यन्दिनी का अमर स्रोत दिखाई पड़ने लगा । व्योम, पथ, वृक्ष, लता, वृन्त, कोकिला एवं पवनादि से वार्तालाप करती है आलोचना करती हुई वह साध्वी रत्नवती मोक्षमार्ग में अत्यधिक रक्त हो जाती है । मंत्री भी राज्य संचालन की सम्यक् व्यवस्था कर संयममार्ग में प्रपन्न हो जाता है । यहीं पर ग्रन्थ समाप्त हो जाता है। धूलिकण, नदियां, । सम्पूर्ण प्रकृति की प्रस्तुत काव्य की कथावस्तु जैन-चरितकाव्य की सरणि में निरूपित है । इसके कथानक में कथोत्प्ररोहशिल्प, कदलीस्थापत्य, मण्डनशिल्प, वक्ताश्रोता रूप कथाप्रणाली, कालमिश्रण, राजप्रासाद-स्थापत्य, रोमांचकता, औपन्यासिकता, उदात्तीकरण, पारमनोवैज्ञानिकशिल्प, अलौकिक तत्त्वों का नियोजन आदि अनेक कथासाहित्यिक वैशिष्ट्य सन्निहित हैं। स्वतंत्र रूप से विवेव्यकाव्य के परिप्रेक्ष्य में इन वैशिष्ट्यों का खंड १८, अंक ४ २९५
SR No.524574
Book TitleTulsi Prajna 1993 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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