SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नपाल चरित : एक साहित्यिक अनुशीलन | डॉ० हरिशंकर पाण्डेय कहते हैं, जिसका हरतंत्र आनन्दात्मक एवं रहता है । इसीलिए सुप्रसिद्ध साहित्याचार्य विधाता की सृष्टि से भी श्र ेष्ठ होने की उद्घोषणा की है ।" आत्मा की महनीयता जब रसात्मक शब्दों में अभिव्यक्त होती है उसे काव्य श्र ेयस्कर होता है। जहां उपादेय ही शेष मम्मट ने काव्य को केवलानंदमयी बताकर विधाता सृष्टि - विलक्षण - लक्षण - सम्पन्न काव्य की अनेक विधाओं में चरितकाव्य ब्याज से नीति, सदाचार, धर्म एवं का महत्वपूर्ण स्थान है, जिसमें किसी उदात्त पात्र के दर्शन के तत्त्वों का प्रतिपादन किया जाता है । चरितकाव्य की महनीय परम्परा 'रत्नपालचरित' की संगणना की जा सकती है, जो संस्कृत भाषा में निबंधित एवं अभी तक अप्रकाशित है । इस ग्रन्थ का कवि वैसा महान् व्यक्तित्व सम्पन्न पुरुष है, जो प्रतिभा और प्रज्ञा का अशोष्य आकर है । आचार्य श्यामदेव एवं मंगल कथित- - "काव्यकर्मणि कवेः समाधिः परं व्याप्रियते इति श्यामदेव:, अभ्यास इति मङ्गलः ' एवं राजशेखर प्ररूपित समाधिरान्तरप्रयत्नो बाह्यस्वत्वभ्यासः' १,३ समाधि और शास्त्राभ्यास रूप काव्यकारणभूत दोनों महायात्राओं को जिसने पूर्ण कर लिया है, जिसे संसार में युवाचार्य महाप्रज्ञ के नाम से जानते हैं और जो तेरापंथ धर्मसंघ के समदर्शी आचार्य श्री तुलसी का उत्तराधिकारी है । में काव्यालोचना में वस्तु, नेता और रस आदि तीन तत्त्व विवेच्य एवं समीक्ष्य होते हैं । आधुनिक आलोचना में इन तत्वों संवर्द्धन हुआ है । प्रस्तुत नबन्ध में वस्तु, संवाद, पात्र चित्रण, रस, भाषा, शैली, छन्द, अलंकार, सूक्ति और उद्देश्यादि तत्त्वों पर प्रकाश डालने का विनम्र प्रयास किया जा रहा है । वस्तु- संविधान प्रस्तुत चरित्र - काव्य में दक्षिण के सुसमृद्ध नगर शक्रपुर के नीतिज्ञनृपति चन्द्रकीर्ति एवं शीलवन्ती रानी चन्द्रकान्ता के पुत्र रत्नपाल के चरित्र का पांच सर्गों ( २२४ श्लोक ) में काव्यात्मक वर्णन अनुस्यूत है । काव्यारंभ के पूर्व चार श्लोकों में मंगलाचरण निबद्ध है । ४ कथा का आरम्भ सूर्योदय के मनोरम वर्णन एवं " सन्तो निसर्गात उपकारिणो यत् " ( सन्त स्वभाव से उपकारी होते हैं ।) रूप सन्त-स्वभाव निरूपक साधु-सूति से होता है | अन्यायवत्त प्रतिघाततो न विवस्वतो न्यूवपदं नयामि ।' एवं भास्वानऽयं व्योम्नि खंड १८, अंक ४ २९३
SR No.524574
Book TitleTulsi Prajna 1993 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy