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हैं (जो उपरोक्त ७ की संख्या में समाविष्ट कर लिए गए हैं)। हमारा यह कहना नहीं है कि आगमों में 'त' श्रुति नहीं है; पर आदर्शों में जिस स्थल पर वह मिलती है वहीं ली जा सकती हैं - सर्वत्र नहीं । महावीर जैन विद्यालय के संस्करण में आगमोदय समिति संस्करण की अपेक्षा 'त' श्रुति की भरमार है परन्तु एक भी जगह बिना आदर्श का आधार लिए नहीं है । विडम्बना यह है कि डॉ० चन्द्रा ने अपने सारे निष्कर्ष बिना असल प्रतियों के देखे केवल छपी पुस्तकों - द्वितीय स्तर की साक्ष्य (Secondary evidence) के आधार पर निकाले हैं जिन्हें प्रायः साधारण अदालत भी नहीं मानती है | यदि वे गहराई में जाते तो अपना मामला मजबूत कर सके होते ।
अर्द्धमागधी भाषा के प्राचीन रूप का तर्क भी शक्तिहीन है । भगवान् ने तीर्थ की प्ररूपणा की थी, न कि अर्द्धमागधी भाषा की। वह भाषा तो उनसे पूर्व भी प्रचलित थी — उनसे भी बहुत पुरानी है । भाषावली की कठोर सीमा रेखायें नहीं खेंची जा सकती है तथा एक प्रदेश व एक युग में सभी व्यक्ति एक सी ही भाषा वापरते हैं यह सिद्धान्त भी नहीं बनता है । भिन्न-भिन्न जातियों की, शहरों व गांवों की, अनपढ़ व पण्डितों की बोलियों में अन्तर होता है - पारिभाषिक शब्दावली भी अपनी-अपनी अलग होती है । आज २१वीं सदी में भी मारवाड़ी लोगों की बहियों व आपसी पत्रव्यवहार की भाषा व शैली १८वीं, १९वीं शताब्दी से मेल खाती है और इसी कारण जैन समाज यह कदापि स्वीकार करने वाला नहीं है कि बौद्ध ग्रन्थों या अशोक के शिलालेखों में प्रयुक्त भाषा हमारे आदर्शों की अपेक्षा अधिक माननीय है एवं जैनागमों में अपना ली जानी चाहिए। हां आगमों का अर्थ समझने में भले ही उनकी सहायता ली जाए किन्तु पण्डितों से हमेशा हमारा यही आग्रह रहेगा कि कृपया बिना भेलसेल का वही पाठ हमें प्रदान करें जो तीर्थंकरों ने अर्थ रूप से प्ररूपित और गणधरों ने सूत्ररूप से संकलित किया था । हमारे लिये वही सर्वथा शुद्ध है । सर्वज्ञों को जिस अक्षर शब्द पद वाक्य या भाषा का प्रयोग अभीप्ट था वह सूचित कर गये- अब उसमें कोई सर्वज्ञ फेरबदल नहीं कर सकता । उसकी अपेक्षा अक्षर व्यंजन मात्रा भी गलत, कम या अधिक बोलने पर ज्ञानाचार को अतिचार लगता है- प्रतिक्रमण में प्रायश्चित्त करना पड़ता है ।
रही बात व्याकरण की, सो व्याकरण गणित की तरह एक ऋत विज्ञान ( Exact Science) तो है नहीं कि जहां दो व दो चार ही होते हों । व्याकरण के प्रायः सभी नियम अपने-अपने अनुमान व अधूरे पोथी ज्ञान के बल पर बनाए गए हैं, की संज्ञा नहीं दी जा सकती । वैयाकरण, निष्णान्त ( experts) होते हैं अधिक की बात छोड़िए, दो निष्णान्त भी एकमत नहीं होते हैं । की बहस के बाद भी जैनों के मूल मन्त्र नवकार में "न" शुद्ध है इसका निर्णय वैयाकरण नहीं कर पाए हैं जबकि डॉ० चन्दा ने
उन्हें पूर्णता और सब या
और तो और, वर्षों
या "ण" शुद्ध है प्रस्तुत उद्देशक में
करके किए हैं जिनमें एक भी आदर्श सम्मत
३५ पाठ भेद केवल "ण" को न में बदल नहीं है ।
साथ में हमें यह नहीं भूलना है कि व्याकरण तो मंच पर बहुत बाद में आती
खंड १८, अंक ४
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