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है) ही हमारा एक मात्र आधार रह गई हैं और इसीलिये आगम-संपादन की यह मान्य प्रथा है कि बिना आदर्श में उपलब्ध हुए कोई भी पाठ स्वीकार न किया जाय।
इस दृष्टि से डॉ. चन्द्रा द्वारा संपादित प्रथम उद्देशक का विश्लेषण करते हैं तो संलग्न सूची के अनुसार महावीर जैन विद्यालय संस्करण (जिसे उन्होंने आदर्श ग्रन्थ/ प्रति के रूप में प्रयुक्त किया है) के पाठ को ९४ जगहों पर शब्दों में भेद किया है। ५ शब्द भेद छठे सूत्र में 'यश्रुति, तश्रुति, उदवृतस्वर' आधार पर और जोड़े जा सकते हैं जैसा कि उन्होंने दूसरे सूत्र में (सूची क्रम संख्या ४८-९, ५२-४) में किये हैं (संभवतः छठे सूत्र में ये भेद करना चाहते हुए भी नजर चूक से वे भूल गये लगते हैं)। इस प्रकार पाठ भेद वाले शब्दों की संख्या ९९ पर पहुंच जाएगी और १७ शब्दों में (सूची क्रम संख्या १,३,९,३१,३२,३९,४०,५०,५१,५५,५९.६५,६७,७६,८३,८७,९०) तो दो-दो पाठ भेद हैं अतः कुल पाठ भेद ११६ गिनाये जा सकते हैं। लेकिन इतने सारे पाठ भेदों में केवल ७ भेद ही (सूची क्रम संख्या ९,४८,४९,५२,५३,५४ व ५७) आदर्श सम्मत हैं । बाकी के सब भेद आदर्शों पर आधारित न होने के कारण अमान्य ठहरते हैं। डॉ० साहब कष्ट उठाकर भण्डारों में जाते, प्राचीन प्रतियों का अध्ययन करते
और उसी सूत्र में उसी स्थल पर इनके द्वारा सुझाया गया पाठ उपलब्ध है ऐसा बताते तब तो कुछ आधार बनता, वरना इनका पाठ गले नहीं उतरेगा ।
असल आगम पाठ क्या है ? बस इसका ही निर्धारण करें। आपकी राय में क्या होना चाहिए या हो सकता है यह अनधिकार चेष्टा है। वास्तव में पाश्चात्य जगत् से आई ‘संपादन' नाम से पहिचाने जाने वाली प्रक्रिया आगमों पर लागू ही नहीं होती है क्योंकि न तो हम सर्वज्ञ हैं न गणधर और न आगमधर स्थविर हैं (नियुक्ति व चूर्णिकार ने तो थेर शब्द का अर्थ भी गणधर ही किया है-देखें द्वितीय स्कन्ध का प्रारंभ) अन्य आगमों में या स्वयं आचाराङ्ग में अन्यत्र अमुक पाठ मिलता है इसलिये यहां भी वैसा ही पाठ होना चाहिए, इस तर्क में कोई बल नहीं है--यह दुतरफा है। इसके अतिरिक्त यह कोई नियम नहीं है कि एक व्यक्ति सदैव एक सरीखा ही वोलता है। श्रोताओं की भिन्नता, स्थल की भिन्नता आदि कारणवश अथवा बिना कारण भी, हम गद्य पद्य छंद मात्रा अलंकार, कभी लोक तो कभी लोग, कभी पानी तो कभी जल, कभी प्रज्ञापना तो कभी पण्णवण्णा, कभी किंवा तो कभी अथवा, कभी कागज तो कभी कागद, कभी भगवती तो कभी व्याख्याप्रज्ञप्ति, कभी प्रत्याख्यान तो कभी पच्चक्खाण, कभी छापा तो कभी अखबार, कभी सुसरा तो कभी हुसरा, कभी मैं तो कभी हम, कभी प्रतिक्रमण तो कभी पडिक्कमणा, कभी रजिस्ट्री तो कभी पंजीकरण बोलते हैं। अर्थात् हमारी बोली में और विशेषतः सतत बिहारी साधु वर्ग में श्रुतिवैविध्य, शब्दवैविध्य (पर्यायवाची) और भाषा वैविध्य (अन्य भाषा के शब्द) होता है।
डॉ० चन्द्रा ने ३८ भेद (यकात/उदवतस्वर करके) ७ भेद (ग का क करके) ३ भेद (ह का ध करके) २ भेद (ड्ड का द्ध करके) १ भेद (य का च करके) और १ भेद (य का ज करके) कुल ५२ भेद श्रुति आधारित किए हैं जिनमें केवल ६ आदर्श सम्मत
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तुलसी प्रज्ञा