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है। व्याकरण के नियम रचित साहित्य पर आधारित होते हैं-शास्त्रों व अन्य ग्रन्थों । में हुए प्रयोगों के अनुसार पण्डितों द्वारा पीछे से घड़े जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में यह कहना कि आगमकारों ने व्याकरण की अवहेलना की है किंवा आगम-रचना व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध हुई है, उतना ही हास्यास्पद है जितना कि यह कहना कि हमारे दादों, पड़दादों ने हमारे पोतों पड़पोतों का अनुकरण नहीं किया।
थोड़ी देर के लिए यह मान भी लें कि सभी व्याकरण डॉ० चन्द्रा से एकमत हैं और यह भी मान लें कि भगवान महावीर की तीर्थ-प्ररूपणा से पूर्व डॉ० चन्द्रा की यह नियमावली दृढ़तापूर्वक प्रभाव में थी तो भी हमारा कथन है कि आगम इतनी उच्चकोटि की सत्ता व अधिकारिक स्तर लिए हुए हैं कि बेचारी व्याकरण की वहां तक पहुंच ही नहीं है। सर्वज्ञों के वचन व्याकरण के अधिकार क्षेत्र से परे व बहुतबहुत ऊंचे हैं । पाणिनी का व्याकरण वेदों पर लागू नहीं होता अर्थात् आर्ष प्रयोग के अपवाद सर्व मान्य हैं। स्टूडियो में निदेशक जैसे एक्टर (अभिनेता) को अथवा छड़ीधारी अध्यापक जैसे छात्र को कहता है कि 'तू ऐसा बोल' वैसा मुंह में भाषा ठूसने का अधिकार वैयाकरण को नहीं है कि तीर्थंकर या गणधरों को कहें कि आपको इस प्रकार बोलना चाहिए था ! इसे आप वैयाकरणों का दुर्भाग्य मानें या जनता का सौभाग्य कि ज्ञान प्राप्ति के बाद भगवान् ने तीर्थ की प्ररूपणा पण्डितों की भाषा में नहीं की–वे लोकभाषा में बोले ताकि आम प्रजा आप्त वचनों को सरलतापूर्वक सही रूप में समझ सके । प्रस्तुत उद्देशक में ७ भेद विभक्ति परिवर्तन करके, २ भेद अनुस्वार का लोप करके और १ भेद ए का लोप करके व्याकरण की दृष्टि से १० पाठ भेद किए गए हैं। जिनमें केवल एक भेद ही आदर्श सम्मत है जो ऊपर गिनाया जा चुका है।
अतएव व्याकरण के पण्डितों से हमारा अनुरोध है कि ज्ञानी (जो वैयाकरण नहीं होता है) व पण्डित के बीच इस भारी फर्क को समझे और अपने व्याकरण ज्ञान को सामान्य शास्त्रों, ग्रन्थों व अन्य साहित्य तक ही सीमित रखें--आगमों पर थोपने की कोशिश न करें। तिस पर भी उन्हें आप्त वचनों में भाषाई या व्याकरणीय दोष असहनीय रूप से खटकते हों तो "समरथ को नहीं दोष गुंसाई" इस चौपइ में संतोष मना लें । प्रोफेसर घाटगे ने अपने अभिप्राय में ठीक ही लिखा है कि ऐसे प्रयासों का उपयोग शब्दकोश बनाने में लिया जाएगा कि उपलब्ध पाठों में प्राचीनतम पाठ कौनसा है । मुनि श्री जम्बूविजयजी ने भी अपने अभिप्राय में लिखा है-“में उपर-उपर थी तमारु पुस्तक जोयु छ। अनुनासिक-परसवर्ण वाला पाठो प्रायः MSS मां मलता ज नथी एटेल ञ् ड वगेरे वाला पाठो माराथी अपायनहि, अमारो एक सिद्धांत छ के MSS मां होय तेज पाठ आपवो।" लेखक ने भी जैसलमेर, पूना, काठमाण्डू, जोधपुर, बाड़मेर, जयपुर आदि भंडारों की हजारों प्राचीन प्रतियों का अवलोकन, सूचीकरण व प्रतिलिपिकरण किया है पर प्राकृत ग्रन्थों में परसवर्ण अनुनासिक लिखने की पद्धति का अभाव ही पाया है --- अनुस्वार से ही काम चलाया गया है। लेकिन डॉ० चन्द्रा ने इस पद्धति को अपना कर प्रस्तुत उद्देशक में १६ स्थानों पर पाठभेद खड़े किए हैं जिनमें से एक भी आदर्श सम्मत नहीं हैं।
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तुलसी प्रज्ञा