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बदि सप्तमी सोमवार 'प्रमोद' संवत्सर विक्रमी सं० १८५६ को एक अष्टक पूर्ण करके कार्तिक वदि द्वितीया सोमवार 'वृष' संवत्सर सं० १८६७ को लिखकर पूर्ण किया है। प्रतिलिपि सुवाच्य और निर्धान्त है। प्रत्येक अष्टक में क्रमशः ८३ + ७४ + ८० + ८१ +-८१+९२ +९४ +९२ क्रम से कुल ६७७ पत्रक हैं।
प्रत् के आठ अष्टकों में आठ, आठ अध्याय पूरे हैं। मंत्र (ऋचाएं) व्याकृत शैली में स्वराघात चिह्नों के साथ लिखे गये हैं। मंत्रों की संख्या निश्चय ही दश मण्डलात्मक ऋग्वेद से कम होगी किन्तु उसके प्रथम दो अष्टक प्रिंसिपल राजवाड़े के संस्करण से मेल खाते हैं । केवल द्वितीय अष्टक में 'इळामने 'वस्मे''.--इत्यादि एक मंत्र नहीं है और कतिपय मंत्रों में आरंभिक पद छोड़े हुए हैं।
परिचयार्थ नीचे प्रथम अष्टक का पहला मंत्र समूह उद्धृत किया जा रहा है--- "हरि हिः ३ॐम् ।। अग्नि । इळ । पुरःऽहितं । यज्ञस्य स्ये । देवं । ऋत्विजं । होतारं । रत्नधातमं ॥ अग्निः । पूर्वेभिः । ऋषिभिः । ईड्येः । नूतनः । उत । सः। देवान् । आ । इह । वक्षति । अग्निना । रयिं । अथवत् । पोषं । एव । दिवेऽदिवे । यशसं । वीरवत्ऽनमं । अग्ने । यं । यज्ञं । अध्वरं । विश्वतः । परिऽभूः । असि । सः । इत । देवेषु । ग छ ति । अग्निः । होता । क विक्रतुः । सत्यः । चित्रश्रवऽतमः। देवः । देवेभिः । आ । गमत ॥१॥"
-उक्त पांच मंत्रों का पहला समूह देखने से यह स्पष्ट होता है कि इस प्रत् से मिलान करके वर्तमान प्रकाशित प्रतियों के स्वरूप को देखा-परखा जा सकता है और दशमण्डलात्मक एवं आठ अष्टक वाले स्वरूपों के विभेद को भी उजागर किया जा सकता है।
संदर्भ १. (i) बह वृचानां शाकलीया द्वादशतायी (दाशतायी ? )संहिता-ऐतरेयारण्यकम् । (ii) द्वादश बृहती सहस्राणि एतावत्यो ह्य) याः प्रजापतिसृष्टाः ।।
-शतपथ ब्राह्मण (१०.४.२.२३) (iii) आजकल ऋग्वेद में १०५८० मंत्र, १५३८२६ पद अथवा ४ ३२००० अक्षर
माने जाते हैं। २. मनुस्मृति (प्रथम अध्याय) में 'चतुर्युग' को १२००० बारह सहस्र वर्षों का
"देवतायुग' कहा गया है। ब्रह्माण्ड पुराण (१.२.२९-३६) में इसे स्पष्ट कर दिया गया है
'तेषां द्वादश साहस्री युग संख्या प्रकीर्तिता । कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चैव चतुष्टयम् ॥
खंड १८, अंक ४
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