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दूसरे मण्डल को गृत्समद ने, तीसरे को विश्वामित्र ने, चौथे को वामदेव ने, पांचवें . को अत्रि ने, छठे को भारद्वाज ने, सातवें को वसिष्ठ ने, आठवें को प्रगाथा ने और नौवें मण्डल को पावमान्य ने संग्रह किया। दसवें मण्डल को, एक से दस ऋचाओं के क्षुद्र और दस से अधिक ऋचाओं के महासूक्त के रूप में, अनेकों ऋषियों ने संग्रह किया। इन संग्रहकर्ताओं को ही क्रमशः शतचिन, मध्यम, क्षुद्र-महासूक्त संग्रहकर्ता कहा गया है।
____ ऋषियों में भी ऋषि, ऋषिपुत्र, ऋषिकपौत्र, नप्ता आदि और ऋषिका शामिल हैं । जैसे तीसरे मण्डल के ऋषि-विश्वामित्र का पुत्र मधुच्छन्द, पौत्र जेता। अंगिरस के पुत्र रहूगण: पौत्र गोतम, नप्ता वामदेव और प्रणप्ता बृहदुक्थ्य । इसी प्रकार तीसरे अष्टक में 'ममद्विते' त्यादि दश ऋचाओं के सूक्त के ऋषि राजर्षि पुरुकुत्स पुत्र त्रसदस्यु । 'कउश्रव' दिति सात ऋचाओं के सूक्त की ऋषिका पुरुमीढ-अजमीढ-सुहोत्र राजा की पुत्री वृषी। आठवें अष्टक के द्वितीय अध्याय में 'अग्निरिन्द्र' इत्यादि पांच ऋचाओं तथा 'देवान् हुवे' आदि पन्द्रह ऋचाओं के ऋषि वसुक पुत्र वसुकर्ण । चतुर्थ अष्टक के प्रथम अध्याय में 'समिद्धो अग्निः' आदि छह ऋचाओं की ऋषिका अत्रिपुत्री विश्ववारा और आठवें अष्टक के छठे अध्याय में 'ते वदन्नि' ति सात ऋचाओं की ऋषिका ब्रह्मजाया जुहू तथा आठवें अष्टक के छठे अध्याय में पठित 'इन्द्रस्य दूतीरिषिता चरामी' ति और 'नाहं तं वेदे' ति मन्त्रों की दृष्टा ऋषिका सरमा देवशुनी। इत्यादि ।२ सारांश
इस प्रकार ऋग्वेद के परिमान में सुदीर्घकाल से कैसा भी कोई परिवर्तन इत्यादि नहीं हुआ और यह अविकल रूप में सुरक्षित और संरक्षित है । इसके वर्तमान स्वरूप को कम से कम आचार्य शौनक के समय से ज्यों के त्यों बने रहने के बहुविध प्रमाण उपलब्ध हैं । महर्षि वेद व्यास ने 'विकृतवल्ली' की रचना की है। उससे भी यही स्पष्ट होता है कि उन्होंने ऋग्वेदादि के परिमान में कैसा भी कोई हस्तक्षेप नहीं किया । केवल उन्होंने विशालकाय वैदिक वाङमय को संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषदादि के रूप में व्यवस्थित कर दिया। इसलिये वे 'वेदव्यास' कहे गये ।।३।।
ऋग्वेद में वैवस्वतमनु, नाभानेदिप्ठ, मांधात, यौवनाश्व, सत्यव्रत त्रिशंकु, त्रैय्यारूण, हरिश्चन्द्र, सगर, अंशुमत, अंबरीष, अयुतायु, ऋतुपर्ण, दीर्घबाहु, रघु, अज, दशरथ, रामदाशरथि आदि ईश्वाकु राजा गण उल्लिखित हैं जो महाभारत युद्ध से लगभग १००० वर्ष पूर्व हो चुके हैं। अतः इस आधार पर भी ऋग्वेद का वर्तमान स्वरूप महाभारत युद्ध मे बहुत पहले स्थिर हो जाना प्रमाणित होता है । वर्द्धमान ग्रन्थागार की प्रत्
जैन विश्व भारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) के केन्द्रीय पुस्तकालयवर्द्धमान ग्रन्थागार में ऋग्वेद संहिता की एक दुर्लभ प्रतृण्ण संहिता प्रत् सुरक्षित है। इस दुर्लभ पत् को पं० सदाशिव उपाध्याय के पुत्र सखोबा उपनाम पराड़कर ने ज्येष्ठ
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- तुलसी प्रज्ञा