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________________ हैं X सन्धि विवर्तयति तन्निर्भुजस्य रूपम् । अथ यच्छुद्धे अक्षरे अभिव्याहरति तत्प्रसृण्णस्य ॥ X X अग्र उ एवोभयमन्तरेणोभय व्याप्तं भवति । महर्षि वेदव्यास की "विकृतवल्ली” में यह क्रम संहिताएं निम्न प्रकार कही गई जटा माला शिलालेखा ध्वजो दण्डो रथो धनः । अष्टौ विकृतयः प्रोक्ताः क्रमपूर्वा मनीषिभिः ।। उपर्युक्त विधि से यजुर्वेद का परिमान बहुत अधिक विस्तृत हुआ और तैत्तिरीय, काण्वादि, चरकशाखीय, मैत्रायणीय और वाजसनेय आदि अनेकों शाखाएं बन गईं । इस संबंध में सर्वानुक्रमणी में लिखा मिलता है देवा यज्ञं ब्राह्मणानुवाको विंशतिरनुष्टुभः सोमसम्पत् । - अर्थात् यजुर्वेद १७.१२ के "देवा यज्ञमतन्वत" मंत्र से बीस अनुष्टुभ तक ब्राह्मण भाग हैं | अश्वस्तूपरो ब्राह्मणाध्यायः शावंदद्भिस्त्वचान्तश्च । - यजुर्वेद का २४वां अध्याय और २५ वें में " शाद" से " त्वचा" तक नौ मंत्र भी ब्राह्मण भाग हैं । पुनः ब्राह्मणे ब्राह्मणमिति द्वे काण्डिके तपसे अनुवाकश्च ब्राह्मणम् । - कि तीसवें अध्याय में 'ब्राह्मणे ब्राह्मणम्' की दो काण्डिका और तपस अनुवाक भी ब्राह्मण है । अर्थात् उसमें मंत्र विभाग और ब्राह्मण भाग मिल गया है । ऋग्वेद की भी अनेकों शाखाएं बनीं किन्तु उसमें यजुर्वेद की तरह मिश्रण नहीं हुआ । उसमें भी वालखिल्य आदि जुड़े हैं परन्तु परिशिष्ट के रूप में जुड़े हैं । अनुवाकानुक्रमणी में लिखा है— सहस्रमेतत् सूक्तानां निश्चितं खेलकैविना । कि खिल भाग को छोड़कर ऋग्वेद में एक सहस्र सूक्त निश्चित हैं । ऋक् प्रातिशाख्य में भी लिखा है खंड १८, अंक ४ ऋचां समूह ऋग्वेदस्तमभ्यस्य प्रयत्नतः । पठितः शाकलेनादौ चतुभिस्तदनन्तरम् ॥ शांखाश्वलायनौ चैव माण्डूक्ये बाष्कलस्तथा । बहूचा ऋषयः सर्वे पंचं ते एक वेदिनः ॥ कि आरम्भ में शाकल संहिता बनीं और तदनु उसके चार शिष्य - बाष्कल, आश्वलायन, शांखायन और माण्डूक की शाखाएं संग्रह हुईं । विष्णु पुराण में शाकल के पांच शिष्यों के नाम किंचित् भिन्न प्रकार से दिये हैं मुद्गो गोकुलो वात्स्यः शैशिरः शिशिर स्तथा । पंचैते शाकलाः शिष्याः शाखाभेद प्रवर्त्तकाः ।। २७७
SR No.524574
Book TitleTulsi Prajna 1993 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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