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शस्त्रयानुवाक्याभि होतालं कुरुतेऽध्वरम् । आज्यपृष्ठादिभिः स्तोत्ररूद् गातालं करोत्यमुम् । त्रयाणामपरार्द्ध तु ब्रह्मा परिहरेत् सदा । ऋचां (८.३.४४ ) इति मन्त्रेऽस्मिन्नर्थः सवाऽभिधीयते ॥
-- कि चतुभिर्यज्ञसंपद को अध्वर्यु निर्माण करता है और होता, ब्रह्मा व उद्गाता उसे अलंकृत करते हैं जबकि अध्वर्यु, होता, उद्गाता के अपरार्द्ध को ब्रह्मा नियमन करता है । ब्राह्मण ग्रन्थों में इस संबंध में लिखा मिलता है—
ऋग्वेदेन होता करोति ta
सामवेदेनोद् गाता अथर्वा ब्रह्मा ।
यजुर्वेद से अध्वर्युः, सामवेद से उद्गाता और अथव गोपथ ब्राह्मण ने
- कि ऋग्वेद से होता, (मंत्रों) से ब्रह्मा यज्ञ करते हैं
।
अथर्वाङ्गिरोमि ब्रह्मत्वम् । अथर्वाङ्गिरोविद् ब्रह्माणम् ॥
कहकर अथर्ववेद के ज्ञाता ही को "ब्रह्मा" कह दिया है । सायणाचार्य के शब्दों में
जाते देहे भवत्यस्य कटकादि विभूषणम् । आश्रितं मणिमुक्तादि कटकादौ यथा तथा ।। यजुर्जात यज्ञ देहे स्यादृग्मिस्तद्विभूषणम् । सामाख्या मणि मुक्ताद्या ऋक्षु तासु समाश्रिताः ॥
- जैसे बाल वपु को मणि मुक्तादि से सुशोभित किया जाता है वैसे ही यजुर्वेद से बनें यज्ञ - देह को ऋग्वेदादि से विभूषित कर साम गीतियों से सजाया जाता है । स्वयं अथर्ववेद (१०.७.२० ) में इसके लिए यह व्याख्यान है—
यस्मावृचो अपातक्षन् यजुयंस्मादपाकषन् ।
सामानि यस्य लोभानि अथर्वांगिरसो मुखम् ॥
कि जिस यज्ञ पुरुष से ऋचाएं और यजूंषि प्राप्त हुईं, सामानि (सामगीतिकाएं ) भी उसी अथर्वागिरस के मुख से प्रसारित हैं ।"
४. अन्य विद्वानों का कथन है कि संधि आदि के पठन को 'निर्भुज - संहिता' और जिनमें संधि आदि बिना उन्हें 'प्रतृष्ण संहिता' कहा जाता है । जैसे "अग्निमीळे संहिता' का क्रम है और "अग्निम् ईळे पुरः हितम् " --- इत्यादि 'प्रतृण्ण संहिता' का क्रम होता है । आगे चलकर इन दोनों के योग और घन योग आदि से आठ प्रकार की संहिताएं बना ली गईं ताकि मूल वेदपाठ में कैसी भी कोई विकृति न आने पाए । ऐतरेय आरण्यक ( ३.१३ ) में यह व्यवस्था बताई गई है
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साथ ऋचाओं को, ज्यों के त्यों
केवल पदों का उच्चारण हो, पुरोहितम् " -- इत्यादि 'निर्भुज
तुलसी प्रज्ञा