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२. एक मान्य सिद्धान्त यह है कि सृष्टि-निर्माण से पूर्व दृश्यमान, विश्व ब्रह्म रूप था । उस ब्रह्मरूप में 'अहं ब्रह्मास्मीति ' - ऐसा आत्म साक्षात्कार हुआ और बाद में उस ब्रह्मरूप में से ही यह समस्त ब्रह्माण्ड (विश्व) निर्मित हुआ । इस सिद्धान्तका व्याख्यान ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है'प्रजापतिरकामयत प्रजायेय भूयान्स्यामिति । स तपोऽतप्यत् । स तपस्तत्वे मान् लोकानसृजत पृथिवीमन्तरिक्षं दिवम् । तान् लोकानभ्यतपत् तेभ्योऽभितप्तेभ्यस्त्रीणि ज्योतींष्यं जायन्ताग्निरेव पृथिव्या अजायत वायुरन्तरिक्षादादित्यो दिवः । तानि ज्योतींष्यंभ्यतपत् तेभ्योऽभितप्तेभ्यस्त्रयो बेदा अजायत । ऋग्वेद एवाग्नेरजायत यजुर्वेदो वायोः सामवेद आदित्यात् । तान् वेदानभ्यतपत् तेभ्योऽभितप्तेभ्यस्त्रीणि शुक्राय जायत भूरित्येव ऋग्वेदादजायत भुव इति यजुर्वेदात् स्वरिति सामवेदात् । तानि शुक्राण्यभ्यतपत् तेभ्योऽभितप्तेभ्यस्त्रयो वर्णा अजायान्ताकार उकारो मकार इति । तानेकधा समभरत्तदेतदोमिति । '
अर्थात् प्रजापति ने अपना विस्तार किया और पृथिवी, अन्तरिक्ष व दिव लोक बनें । इस त्रिलोक से तीन ज्योति और उससे अग्नि, वायु, सूर्य निर्माण हुए । अग्नि से ऋग्वेद, वायु से यजुर्वेद और सूर्य से सामवेद । पुनः वेदत्रयी से तीन बीज वर्ण अ उम् बनें जो समभरण से ओम् (गणेशाकृति) बन गए ।
इस प्रकार आरंभ में प्रजापति ने प्रणव व्याहृति को देखा और कालान्तर में ऋषियों ने स्व स्व तपोबल से मंत्र विभागों को पाया और प्रकाशित किया । इस व्याख्यान को ऋग्वेद में इस प्रकार कहा गया है
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे । छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्माद जायते ।।
कि उस यज्ञरूप प्रजापति से ही ऋचा, सामानि और यजूंषि रूप छन्द (वेद मंत्र ) प्राप्त हुए हैं । पुनः इसी बात को ' धाता यथा पूर्वमकल्पयत्' -- कहकर दोहराया गया है
युगान्तेन्तहितान्वेदान् ऐतिहासान् महर्षयः । लेभिरे तपसा पूर्वमनुज्ञाताः स्वयम्भुवा ॥
३. दूसरे विद्वानों का मानना है कि कर्म, उपासना और ज्ञान लक्षण प्रतिपाद्य वेदत्रयी बहुशाखा प्रशाखा भेद से विस्तृत हो गई है। मूलतः उसमें एकरूपता हैसर्व वेदेष्वनेकत्वमुपास्ते रथवकता | अनेकत्वं कौथुमादि नामधमं विभेदतः ।।
और केवल नामधर्म विभेद से अनेकता दृष्टिगत होती है । मंत्राणां संहति संहिता । पद प्रकृतिः संहिता । वर्णानामेक प्राण संयोगः संहिता । इत्यादि स्मृति - प्रयोजन से क्रम निर्धारित किये गये हैं । इस संबंध में मान्य सिद्धान्त यह है
यज्ञो ब्रह्म च वेदेषु द्वावर्थों काण्डयोर्द्वयोः । अध्वर्यु मुख्यॠ विग्भिश्चतुभिर्यज्ञ संपदः || निमिमीते क्रिया संघरध्वर्यु पंज्ञियं वपुः । तदलं कुर्वते होता ब्रह्मोद् गातेत्यमीत्रयः ॥
खड १८ अंक ४
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