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________________ पंक्तिश्छन्द:'.-यजु० १५.४ और "अङ्काकं छन्दः"-यजु० १५.५ अनुसार) होना मानते हैं । अर्थात् गायत्री (२४ अक्षर)+अतिधृति (७६ अक्षर), उष्णिहः (२८)+ धृति (७२), अनुष्टुभ् (३२)+-अत्यष्टि (६८), बृहती (३६)+ अष्टि (६४), पंक्ति (४०)+ अतिशक्वरी (६०), त्रिष्टुभ् (४४)+ शक्वरी (५६), जगती (४८)+ अति जगती (५२)--- इस प्रकार सौ, सौ, अक्षरों--- अंकों के सात छन्द युग्म (ऋग्वेद १०.१७.३) हैं जो यज्ञवाक् के रूप में ऋषि मुखों में प्रविष्ट होकर स्तुति रूप में गाये जाते हैं । ऋग्वेद की ऋचा (३.८.११) के अनुसार यह छन्द युग्म शतावधी से सहस्रावधी शाखाओं में परिणित होते हैं । इस प्रकार सात छन्द युग्मों के शत, शत अक्षरांक = सात सौ अक्षरांक, सहस्रावधी तक सात लाख अक्षरांक होते हैं जिनके पंक्ति छन्दाक्षर १७५००० हजार और उनके छन्द चरण (पाद) ४३७५० बनते हैं। ये छन्द पाद ऋग्वेद के मान्य छन्द पाद ४०१०० से ३६५० अधिक हैं और उपर्यक्त ४,३२००० पंक्ति छन्द अक्षरों के ४३२०० छन्द पादों से भी ५५० अधिक हैं।" इस न्यूनाधिकता का कारण विद्वानों ने यह माना है कि ऋग्वेद कालीन आर्यों में देवता, स्तुति, लक्षण प्रधान धर्म व्यवहृत था। उसमें कालान्तर में परिवर्तन हुआ और यज्ञ कर्म क्रिया बोधक ऋचाएं पृथक् की जाकर यजुर्वेद आदि का विभागीकरण हुआ। इससे अपकृष्टतावश ऋग्वेद में भी यजुर्वेद, सामवेद प्रतिपाद्य कर्म के बहुत से मंत्र शामिल रह गए । जैसे ऋग्वेद में कतिपय निम्न मंत्र पठित हैं अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि । स इद्देवेषु गच्छति ॥ समिधाऽग्नि दुवस्यत घृतर्बोधयतातिथिम् । अस्मिन् हव्या जुहोतन ॥ -(८.४४.१) सद्योजातो व्यमिमीत यज्ञमग्निर्देवानामभवत् पुरोगाः । अस्य होतुः प्रतिश्मृतस्यवाचि स्वाहाकृतं हविवदन्तु देवाः ॥ ---(१०.११०.११) -ये मंत्र स्पष्टतया यज्ञकर्म विधान को विस्तार देने वाले हैं। जैसे- “यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवा स्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्नि' त्यादि मंत्र यज्ञ कर्म का ही संकीर्तन करते हैं । इसी प्रकार कुछ मंत्र ऋग्वेद के सूक्तों से पृथक् भी हो गए हैं। जैसे ऋग्वेद (१०.१२१) में दस मंत्रों का सूक्त जो "कस्मै देवाय हविषा विधेम:'--.-छन्द पाद से समाप्त होने वाले मंत्रों का है, उसमें नौ ही मंत्र हैं और उसका दसवां मंत्र अथर्ववेद में निम्न प्रकार पठित है--- आपोवत्सं जनयंती मने समरयन् । तस्योत जायमानस्य उल्व आसीत् हिरण्ययः । कस्मै देवाय हविषा विधेम ।। --अथर्ववेद (४.२.८) २७४ तुलसी प्रज्ञा
SR No.524574
Book TitleTulsi Prajna 1993 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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