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मूल्य शिक्षा की एक शैक्षिक आधार दृष्टि भगवान रामचन्द्र जब शबरी से मिले तब 'जाति' पांति कुल धर्म बड़ाई,' धन बल परिजन गुन चतुराई, आदि कुछ नहीं देखा, केवल एक ही बात देखी 'मानॐ एक भगति कर नाता' । केवल भक्ति का संबंध देखा । आदमी में इतनी सामर्थ्य होनी चाहिए कि रिश्तों को देख सके । प्रसंग और सापेक्षिकता के आधार पर व्यक्ति और परिस्थिति का मूल्यांकन कर सके । देश के लाखों साधु-सन्तों ने सूफियों ने, बाउलों ने, जोगियों ने- मात्र प्रेम-भक्ति के नाते को आधार बनाकर 'जाति-पांति कुल धर्म बड़ाई' की अभिजात परम्परा के समानान्तर एक नई परम्परा कायम कर दी । प्रो. सी. पी. स्नो ने इंग्लैंड में 'यू' और 'नॉन यू' संस्कृतियों की जो उपस्थिति बताई थी वैसा ही कुछ इधर भी था। हमारे 'नॉन यू' ने संत कवियों और साधुओं के अनपढ़ गंवारू भजनों के सहारे पंडितों के यम-नियम ताक में रखकर एक नया मूल्य खड़ा कर दिया 'भक्ति', जिसके आगे पांच-पांच या बारह - बारह यम-नियम के मूल्य फीके पड़ गए । या यों कहें के उन्होंने पंडितों का आल- जाल तोड़ कर शास्त्रों-पुराणों का सीधा सार खींच लिया और सामान्य जन की सरल सुबोध भाषा में मनोहर ढंग से रख दिया ।
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यों मूल्यों का संघर्ष हर युग में होता रहा है । महाभारत के नराधमता और नरोत्तमता के जीवन मूल्यों में टकराव है । महामुनि व्यास ने 'धर्ममय' और 'मन्युमय' महावृक्षों के प्रतीक द्वारा बताया है कि सारा मानव-समाज दो जीवन - दर्शन एवं मूल्यों व पद्धतियों वाले मनुष्यों में बंटा हुआ रहता है । प्रो. डी. डी. हर्ष ने लिखा है कि महामुनि व्या "के अनुसार "जीवन में दो मूल प्रकार के मनुष्य हैं और दो ही प्रधान जीवन पद्धतियां हैं । मनुष्य या तो 'धर्ममय' है या 'मन्युमय'; और मानव जीवन के मूल्य इन्हीं दो प्रकार की दृष्टियों से प्रादुर्भूत मूल्य हैं जिनमें मेल कम और संघर्ष ज्यादा है । 17 पहले के प्रतीक हैं युधिष्ठिर - युधिष्ठिरो धर्ममयो महाद्रुमः, और दूसरे के प्रतीक हैं दुर्योधन- दुर्योधनो मन्युमयो महाद्रुमः । मन्युमय महाविटप मानव का अधम रूप है जिसका मूल है अविवेक- 'अमनीषि' धृतराष्ट्र । धर्ममय महावृक्ष मानव का उत्तम रूप है जिसका मूल है अव्यय बीज रूप में स्वयं नारायण - अर्थात् कृष्ण, साक्षात् ब्रह्म । श्रेष्ठ मूल्यों के प्रति अगाध निष्ठा होती है तब नर नरोत्तम भी हो जाता है और नारायण भी ।
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मूल्यों के ये महाभारत इसी संघर्ष की परिणति हैं । महाभारत भीतर भी होता है और बाहर भी । भीतर की वृत्तियों को मनुष्य जीत सके तो बाहर का महाभारत रूक सकता है । ये देवासुर संग्राम, ये महायुद्ध, ये विश्वयुद्ध, ये पारमाणविक भीषण नरसंहार, सभी रूक सकते हैं । मूलवृत्तियां तो वही हैं । काम, क्रोध, मद, लोभ के ही कई रूप कष्ट देते हैं । संकीर्णता, अतिवाद और कट्टरता को जन्म देते हैं । परिप्रेक्ष्य और परिवेश के परिवर्तन के कारण दुनिया की समस्याओं का जो रूप भी बदलेंगे, व्याख्याएं भी बदलेंगी और प्राथमिकताएं भी बदलेंगी । सन् 60 व 70 के बीच अमेरिका में नैतिक मूल्यों से तात्पर्य मुख्यतया जिन शर्तों से था वे थीं - 1. सच बोलो, 2. अपना ऋण अदा
जनवरी - मार्च 1993
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