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तुलसी प्रज्ञा करो, 3. मां-बाप का मान करो और 4. अपनी ओर से किसी को कोई पीड़ा मत पहुंचाओ ।18 ये चार शर्ते जो व्यक्ति पूरी कर देता था उसका नैतिक स्तर संतोषजनक मान लिया जाता था। कोई करता तो ? यथार्थवाद उधर इतना चला कि मामूली नैतिक मानदण्ड भी दुर्लभ हो गए । यह उसकी प्रतिक्रिया थी । मूल्यों का ह्रास पराकाष्ठा पर पहुंच गया तो लोग नैतिकता मांगने लगे ।
पुराने और नये मूल्यों का यह अन्तर उपदेशों से नहीं सिखाया जा सकता । प्रार्थना में प्रवचन करा कर कर्त्तव्यमुक्त हो जाने की प्रवृत्ति बहुत सतही है । नैतिक शिक्षा या धार्मिक शिक्षा या मूल्यों की शिक्षा के 'पाठ' बना देना भी काफी नहीं है । शिक्षा के लिए वातावरण चाहिए, अनुभव चाहिए। कृष्णकुमार कहते हैं 'पाठ' का दर्शन बच्चे को अनुभव की आजादी नहीं देता । हमें अनुभव का शैक्षिक मूल्य स्वीकार करना चाहिए19 बच्चे को तैरने में आनन्द आता है, प्रकृति सुन्दर लगती है, सच्चाई अच्छी लगती है, नहाना व साफ रहना भी अच्छा लग सकता है किन्तु यदि आपने सिद्धांत सिखाने या लैसन' देने जैसी बात शुरू कर दी तो जैसा कि जॉन होल्ट ने कहा है इन सबसे "बच्चे को स्थायी रूप से नफरत हो जाएगी ।।20 रोहित धनकर कहते हैं कि तैयार माल के रूप में इनको अन्तरित नहीं किया जा सकता बल्कि शैक्षिक प्रक्रिया में भाग लेकर ही इनका विकास किया जा सकता है । हम यह तो सुझाव दे सकते हैं कि प्रकृति सुन्दर है, सच्चाई जानने की कोशिश करना एक अच्छा अनुभव है, या किसी काम को अच्छी तरह करने में या साफ रहने में भी अपना एक अलग आनन्द है, लेकिन 'ब्रह्म सत्य' के रूप में कोई कट्टर राय तो हम कभी नहीं देंगे । धार्मिक या राजनीतिक प्रसंग में तो शिक्षक यह कभी नहीं कहेगा कि यह सही है या वह गलत है ।21 दयालचन्द्र सोनी पुराने संस्कारों के प्रति अपराध भावना पैदा करने के पक्ष में नहीं हैं । यदि हमें परिवर्तनकारी शक्तियों का साथ देना है और स्थापित मूल्यों को दूर करना है अर्थात पहले से पड़े हुए गहरे संस्कारों को हटाना है तो उनका सुझाव है कि पुराने संस्कारों के प्रति उपेक्षा वृत्ति पैदा करें तथा नये संस्कारों का निर्माण समानान्तर रूप से नये सिरे से शुरू करें ।22 शिक्षा की प्रक्रिया महत्वपूर्ण है । 'पाठ' या उपदेश अरूचि उत्पन्न करेंगे । विषय शिक्षण के दौरान और खासतौर से साहित्य के माध्यम से, नाटक और कविता के माध्यम से, मूल्यों की समझ ज्यादा प्रभावकारी तरीके से विकसित की जा सकती
शिक्षा स्वयं एक मूल्य है । शिक्षा की स्वतंत्रता उससे भी बड़ा मूल्य है । गिजुभाई ने शैक्षिक अनुभव और शिक्षा प्रक्रिया की स्वतंत्रता के विषय में कहा था-"मनुष्य को अपना परम लक्ष्य प्राप्त करने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए । बंधन में बंधा हुआ मनुष्य चल नही सकता । आज का मनुष्य तरह-तरह के परंपरा-प्राप्त उत्तराधिकारों से बंधा हुआ तो है ही । इन बंधनों के ऊपर हम अपनी पसंद के सामाजिक, नैतिक, जनवरी-मार्च 1993
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