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तुलसी प्रज्ञा
बिना आंख मूंदकर श्रद्धा करना, विश्वास करना, उपासना करना या पूजा करना किसी शिक्षित व्यक्ति का लक्षण नहीं है । यह हमें अपने विद्यार्थियों को सिखाना है और अभ्यास कराना है । तर्क और विवेक से तथ्यों की छानबीन करना सिखाना चाहिए । संदेह करना सिखाना चाहिए । धर्मग्रन्थों में लिखा होने से ही कोई तथ्य सत्य नहीं हो जाता। तथ्य की बजाय कपोल कल्पित बातें भी बहुत हैं शास्त्र - पुराणों में और मिथ्या विश्वासों को जन्म देने वाली भी अनेक बातें हैं । उनसे कदम-कदम पर लड़ना होगा । ईरान में प्रगति की लहर थी तब मुसलमान औरतें मर्दों के साथ कदम मिलाकर चल सकती थीं, पर्दा करके चलने की जरूरत नहीं थी । लेकिन यदि सामाजिक प्रगति नारी की स्वतंत्रता और वैज्ञानिक दृष्टि पर कट्टरपन हावी हो जाये तो नारी फिर कैद होने लगेगी। भारत में पाखंडी पंडितों का वर्चस्व आ गया तो औरतों को जिंदा जलाने का क्रम फिर शुरू 'हो सकता है 'सती' के नाम पर । योरोप में कभी पोप का इतना वर्चस्व था कि गेलीलियों के वैज्ञानिक सत्य को देखना पाप माना गया क्योंकि बाइबिल में जो लिखा था उसके खिलाफ कह रहा था गेलीलियो । वैज्ञानिक दृष्टि के लिए, समाज में खुलेपन के लिए, सामाजिक आर्थिक समता के लिए नारी और हरिजन सभी वर्गों की स्वतन्त्रता के लिए नये मूल्यों की स्थापना कैसे होती है और अतीत के गौरवपूर्ण मूल्यों का नये
समन्वय कैसे होता है इस पर विचार की दृष्टि, शक्ति और सामर्थ्य हमारी शिक्षा प्रणाली को देनी होगी । आज जो निर्णय लेते हैं उन पर आने वाले कल की छाप होनी चाहिए ।
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एक स्वस्थ व्यक्तित्व के लिए एक स्वस्थ और संतुलित जीवन दर्शन होना जरूरी है। यह जीवन दर्शन व्यक्तियों की रूचियों में, रूझान में और कार्य व्यवहार में अभिव्यक्त होता है । जिस जीवन के मूल में कोई मूल्य नहीं है वहां कोई स्थिरता नहीं होगी । वह अनेक विकारों से ग्रस्त होगा । खड़े होने को पैर चाहिए । मेज, कुर्सी के भी पैर होते हैं । अच्छी शिक्षा हो तो व्यक्ति को मूल्यों का अच्छा आधार मिलेगा । ज्ञान-विज्ञान का भी आधार होता है किन्तु मूल्यों का आधार उनमें भी आगे है । ज्ञान - विज्ञान में भी मूल्य अपनी विशेष भूमिका रखते हैं । मनुष्य के स्वभाव में यदि मूल्यों का पर्याप्त समावेश हुआ है तो वह मौलिक होगा, सृजनशील होगा, अन्यथा जैसा कि डॉ. नन्दकिशोर आचार्य ने कहा है, व्यक्ति हो या समाज, वह अविचारित अनुकरण में ही अपना विस्तार देखेगा और मौलिकता खोकर मात्र 'अनुवाद' हो जायेगा 13 परम्परा से प्राप्त श्रेष्ठ मूल्यों के संस्कार देना और नये मूल्यों के संस्कार ग्रहण करने की दृष्टि व सामर्थ्य खुद भी प्राप्त करना और बच्चों को भी देना हर शिक्षक और मां-बाप का एक और उत्तरदायित्व है । उनमें यह चेतना होनी चाहिए कि वे नई-नई विधियां ढूंढे, अपना स्वयं का व्यवहार बदलें और शिक्षण सामग्री में सुधार करें
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जनवरी - मार्च 1993
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