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जैसे सिंह हरिण को पकड़ कर ले जाता है, उसी प्रकार अन्तकाल में मृत्यु मनुष्य को ले जाती है। काल आने पर उसके माता-पिता या भाई अंशधर नहीं होते-अपने जीवन का भाग देकर बचा नहीं पाते। यहां मृत्यु की उपमा सिंह से तथा मनुष्य की उपमा मृग से दी गई है। सिंह निश्चय ही मृग को निगल जाता है, कोई शक्ति नहीं जो बचा सके, अर्थात् सिंह का प्रहार अमोघ होता है उसी प्रकार मृत्यु भी निश्चित है। मृत्यु के मुख से कोई भी प्राणी बच नहीं सकता और न कोई अन्य उसे बचा सकता है। इसी तथ्य का प्रतिपादन सिंह के उपमान से किया गया है।
- साधु की अभयता एवं सहनशीलता को प्रतिपादित करने के लिए भी एक स्थल पर सिंह को उपमान के रूप में गृहीत किया गया है :
सीहो व सद्देण न संतसेज्जा ।
वयजोग सुच्चा न असम्भमाहु ।।२७ अर्थात् साधु (मुनि) सिंह की भांति भयावह शब्दों से संत्रस्त न हो। वह कुवचन सुनकर असभ्य वचन न बोले । 'सिंह अरण्य-कोलाहल के बावजूद भी अभय होकर जंगल में विचरण करता है उसी प्रकार मुनि भी भयरहित होवे' इस तथ्य का प्रतिपादन प्रस्तुत संदर्भ में अवधेय है । मग
असमर्थता, कायरता एवं कामासक्तता आदि निकृष्ट भावों के अभिव्यञ्जन के लिए उत्तराध्ययन में कुछ स्थलों पर मग को उपमान बनाया गया है। एक सुन्दर प्रसंग द्रष्टव्य है :---
पासेहिं कूडजालेहि मिओ वा अवसो अहं ।
वाहिओ बद्धरुद्धो अ बहुसो चेव विवाइओ॥२८ "पाशों और कूट जालों द्वारा मृग की भांति परवश बना हुआ मैं अनेक बार ठगा गया, बांधा गया, रोका गया और मारा गया हूं।" पूर्व भव-प्रतिबोध प्राप्त मगापुत्र की यह उक्ति है। देह-गेह में आसक्त होकर असमर्थ एवं शक्तिहीन बने हुए जीव की उपमा मृग से दी गई है। जाल में फंसा मृग असमर्थ एवं असहाय अवस्था में विषण्ण होता हुआ मृत्यु को प्राप्त करता है, उसी प्रकार अप्रतिबुद्ध जीव भी संसार-जाल में फंसकर अनन्त दुःखों को भोगता हुआ बार-बार मृत्यु का ग्रास बनता है। अश्व
उत्तराध्ययन सूत्र में अनेक स्थलों पर उत्कृष्ट भावों की अभिव्यञ्जना के लिए सुन्दर अश्व, शिक्षित अश्व एवं कथक घोड़ा को तथा निकृष्ट भावों को प्ररूपित करने के लिए गलिताश्व को उपमान बनाया गया है ।
मा 'गलियस्से व' कसं वयणमिच्छे पुणो पुणो । कसं व वठ्ठमाइण्णे पावगं परिवज्जए ॥२९
खण्ड १८, अंक ३ (अक्टू०-दिस०) १९९२
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