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की उपमा हथिनि परिवृत्त षष्ठीवर्षायुष्क-हाथी से दी गई है । इस उपमान से बहुश्रुत की शक्तिमत्ता एवं परिपक्वता को उद्घाटित किया गया है । पंकजलावसन्न हाथी
अशक्तता एवं असमर्थता को निरूपित करने के लिए पंक-जल में निमग्न हाथी को उपमान बनाया गया है :
नागो जहा पंक जलावसन्नो, दट थलं नाभिसमेइ तीरं।
एवं वय कामगुणेसु गिद्धा न भिक्खुणो मग्गमणुध्वयामो॥ जैसे पंक-जल (दलदल) में फंसा हुआ हाथी स्थल को देखता हुआ भी किनारे पर नहीं पहुंच पाता वैसे ही काम गुणों में आसक्त बने हुए हम श्रमण-धर्म को जानते हुए भी उसका अनुसरण नहीं कर पाते। यहां कामासक्त जीव की उपमा दलदल में फंसे हाथी से दी गई है। दलदल में फंपा हाथी इतना असक्त और अक्षम हो जाता है कि सामने विद्यमान स्थल को प्राप्त नहीं कर पाता, वैसे ही कामादि में आपादमस्तक निमज्जित जीव श्रेय मार्ग-श्रमणधर्मरूपी मार्ग को न देखकर अनन्त दुःख को प्राप्त होता है।
अन्यत्र भी हाथी को उपमान के रूप में उपस्थापित किया गया है। '१४।४८' में सामर्थ्य एवं पराक्रम को उद्घाटित करने के लिए हाथी को उपमान बनाया गया है :
नागो व्व बन्धणं छित्ता ।। . एक स्थल पर भिक्षु की उपमा नागराज से दी गई है। जैसे नागराज (हाथी) बाणों की चोट खाकर व्यथित नहीं होता है। शत्रुपक्ष पर विजय प्राप्त करता है। उसी प्रकार भिक्षु परिषहों के उपस्थित होने पर स्थिर एवं दृढ़ रहकर जयी होता है :
ते तत्थ पत्ते न वहिज्ज भिक्खू संगामप्तीसेइव नागराया ॥२५
सिंह
संयम, पराक्रम, वीरता, धीरता, जागरूकता एवं अभयता आदि गुणों को उद्घाटित करने के लिए उत्तराध्ययन में अनेक स्थलों पर सिंह को उपमान बनाया गया है । एक स्थल पर बहुश्रुत की श्रेष्ठता को प्रतिपादित करने के लिए तीक्ष्ण दाढ़ वाले युवा अधृष्य सिंह को उपमान बनाया गया है :
जहा से तिक्खदाढे उदग्गे दुप्पहंसए ।
सीहे मियाण पवरे एवं हवइ बहुरुसुए ॥" एक स्थल पर मृत्यु की भयंकरता एवं निश्चितता को निरूपित करने के लिए सिंह को उपमान के रूप में उपन्यस्त किया गया है :
जह सीहो व मियं गहाय मच्चू नरं नेइ हु अन्तकाले । न तस्स माया व पिया वा भाया कालम्मि तम्मिसहरा भवंति ।।
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तुलसी प्रज्ञा
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