SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तराध्ययन सूत्र में प्रयुक्त उपमान : एक विवेचन (मनुष्य और पशु वर्ग) - डा० हरिशंकर पांडेय न केवल सर्वतन्त्रस्वतन्त्र कवि बल्कि विभिन्न प्रकार के आचार्य, धर्मोपदेशक भी भव्य-जीव-मंगल की भावना से भावित होकर अपनी अमृतशीकरासोक्त वाणी को काव्यमयी भाषा में सम्प्रेषित करते हैं, जो सामान्य उपदेश से श्रेष्ठ एवं अधिक प्रभावक होती है। इसलिए मम्मटादि आचार्यों ने काव्य को कान्तासम्मित उपदेश कहकर शेष दो उपदेश पद्धतियों (प्रभुसम्मित एवं मित्र सम्मित) से श्रेष्ठ उद्घोषित किया है।' काव्य शरीर की आत्मा रस है तो बाह्यशोभादायक तत्त्व अलंकार ।' अलंकार, काव्य-वनिता के सौन्दर्य-श्री की समृद्धि तो करते ही हैं साथ ही अभिव्यक्ति में वैचित्र्य भी उत्पन्न करते हैं। अलंकारों में उपमा प्रसिद्ध है। इसी कारण लगभग सभी साहित्याचार्यों ने इसका निरूपण किया है। गाये, यास्कादि प्राचीन नरुक्ताचार्य. पाणिनि, पतञ्जलि आदि वैयाकरण तथा भरत-दण्डी-मम्मटादि साहित्याचार्यसबने इसके महत्त्व को स्वीकार करते हुए इसके स्वरूप पर प्रकाश डाला है। उपमा में सादृश्य-सम्पादन का प्रामुख्य होता है । उपमेय और उपमान का समान धर्म के आधार पर तुलना उपमा है। आचार्य मम्मट के शब्दों में-- 'साधर्म्यमुपमाभेदे" अर्थात् उपमेय उपमान के साधर्म्य को उपमा कहते हैं। यहां कार्य-कारण आदि सम्बन्धों का ग्रहण नहीं होता है । उपमा में चार तत्त्व होते हैं-उपमेय, उपमान. साधारण धर्म और उपमावाचक शब्द । जिसकी उपमा दी जाए वह उपमेय है, जो उपमान की अपेक्षा ह्रस्व गुणों वाला होता है और जिससे उपमा दी जाए वह उपमान है जो अधिक गुण वाला और लोक प्रसिद्ध होता है। 'उप' उपसर्ग पूर्वक 'मा माने' या 'माङ्माणे शब्दे' धातु से ल्युट् प्रत्यय करने पर "उपमान" शब्द बनता है जिसका अर्थ तुलना, समरूपता आदि है । 'तुलना का मापदण्ड' जिससे किसी अन्य की तुलना की जाए। साहित्याचार्यों ने अप्रस्तुत, अवर्ण्य, विषयी, अप्रकृत, अप्राक रणिक आदि अनेक नाम उपमान के बताए हैं। वामन के अनुसार 'उपमीयते सादृश्यमानीयते येनोत्कृष्टगुणेनान्यत् तदुपमानम्" अर्थात् जिससे उपमा दी जाती है वह उत्कृष्ट गुणवाला उपमान है। शोभाकर ने प्रसिद्ध गुणवाले को उपमान कहा है -- 'प्रसिद्ध गुणेनोपमानेन'। इस प्रकार जिससे उपमा दी जाए वह खण्ड १८, अंक ३, (अक्टू० -दिसा, ९२) २४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524572
Book TitleTulsi Prajna 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy