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________________ बोलने प्रारम्भ किए। श्रोता दत्त चित्त होकर सुन रहे थे। कई श्लोक बोलने के पश्चात् प्रिंसिपल ने कहा-"ठहरिए ! मैं दूसरा विषय देता हूं।" संभवतः उन्हें भ्रम हो गया था कि ये पूर्व निर्मित श्लोक बोल रहे हैं। अतः उन्होंने कहा- 'मेकाले ने गवर्नल जनरल की कौंसिल में प्रस्ताव रखा था कि भारतीयों में पाश्चात्य शिक्षा का प्रचार किया जाए। उनके रूप रंग तो भारतीय ही हों किन्तु दिल और दिमाग पाश्चात्य बना दिए जाएं । इस शिक्षा का उद्धेश्य निम्न श्रेणी के अफसर तथा क्लर्क तैयार करना था।" इस प्रकार बोलते हुए प्रिंसिपल ने एक लम्बा भाषण दे दिया और भाषण में कही गई बातों को पद्य बद्ध करने के लिए कहा। दूसरों की शब्दावली में एक अपरिचित विषय को छन्दोबद्ध करना साधारण बात नहीं होती किन्तु मुनिश्री बुद्धमल्ल ने तत्काल अपने पूर्व क्रम को बदलते हुए प्रिंसिपल के भाषण को पद्य बद्ध कर डाला । उपस्थित विद्वद् वर्ग उससे बहुत प्रभावित हुआ और प्रिंसिपल तो गद्गद् हो गया । एक बार विद्वत् परिषद् ने उन्हें संस्कृत के शिख रणी छन्द में "फाउण्टेनपन" पर कविता के लिए कहा। उन्होंने तत्काल वैसा करके अपनी प्रतिभा से सबको प्रभावित कर दिया। आशुकविता के कुछ एक प्रसंग यहां प्रस्तुत किए गए हैं किन्तु ऐसे पचासों प्रसंग उपलब्ध हैं जो बहुत ही अद्भुत और चमत्कारी हैं। संस्कृत के क्षेत्र में कवित्व दुर्लभ माना गया है, उसमें आशुकवित्व तो और भी अधिक दुर्लभ है किन्तु तेरापंथ संघ में वह सुलभ और व्यापक बना है। __ संस्कृत काव्य रचना का एक विशिष्ट प्रकार है-एकाक्षरी काव्य । इस विद्या में काव्य रचना शाब्दी और आर्थी-दोनों दृष्टियों से बहुत दुरूह होती है । शताब्दियों में भी इस प्रकार की रचना दुर्लभ है । किसी ने इस प्रकार का प्रयत्न किया हो, ऐसा उल्लेख प्राप्त नहीं होता । यदि किसी ने किया भी है तो वैसी रचना प्राप्त नहीं होती। तेरापंथ धर्म संघ में इस विद्या का भी प्रयोग और विकास हुआ है। मुनिश्री चांदमल इस विद्या के अग्रणी कवि थे। उन्होंने इस प्रकार के पचासों इलोक बनाए हैं जो शब्द, श्रुति और अर्थ-सभी दृष्टियों से चामत्कारिक हैं। समय-समय पर संस्कृत के विशिष्ट विद्वानों के समक्ष उन श्लोकों को प्रस्तुत किया गया। वे सब उनसे चमत्कृत तो हुए ही, किन्तु रचयिता के प्रगाढ़ पाण्डित्य को भी उन्होंने स्वीकार किया। एकाक्षरी काव्य का एक श्लोक उदाहरण स्वरूप यहां उद्धृत किया जाता गगोगीगो गंगा गगगगग गौगांग गगगो गृगो गीगा गीगी ग ग ग ग ग गृगो गगगगो ग गो गो गे गो गो गगगगुगगो गौ गगगगी। ग गो गो गो गौ ग ग ग ग ग गो गा गगगगो इस प्रकार की काव्य रचना वास्तव में ही जटिल कार्य है, किन्तु जिसका भाषा और कोश पर पूर्ण अधिकार होता है वह इस जटिलता को भी पार कर लेता है। तेरापंथ धर्म संघ में इस विद्या का भी प्रचलन हुआ जो शताब्दियों में एक अद्भुत प्रयोग कहा जा सकता है । २४४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524572
Book TitleTulsi Prajna 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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