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________________ नैशं द्विशतकम् , राकेश कुमार शिक्षाशतपदी मुनि गुलाबचन्द्र "निर्मोही" श्लोक शतकम् साध्वीश्री मोहन कुमारी पृथ्वी शतकम् ,, कनकश्री समस्या पूर्ति का क्रम आचार्यश्री कालूगणी के समय से ही प्रारम्भ हो चुका था। सर्व प्रथम स्तोत्र काव्यों के रूप में समस्या पूर्ति का क्रम प्रारम्भ हुआ। आचार्य तुलसी के काल में इसे विशेष बल मिला । विभिन्न समस्याओं की पूर्ति के लिए किसी काव्य आदि में से लेकर या नवीन रचना कर पद दिए जाते और एक निश्चित अवधि में उनकी पूर्ति कराई जाती । शीतकाल में जब बहिविहारी साधु-साध्वियों का सम्मिलन होता तो यह कार्यक्रम विशेष रूप से समायोजित किया जाता। संस्कृत विद्वानों की गोष्ठी में भी ऐसा कार्यक्रम रखा जाता और समस्या पूर्ति के श्लोक सुनाए जाते । इससे वातावरण में बड़ा उत्साह रहता और साधु-साध्वियों को भी प्रेरणा मिलती। परिणाम स्वरूप आज स्थिति यह है कि पचासों साधु-साध्वियां इस विद्या में यथेष्ट क्षमता रखते हैं। शतक रचना की तरह पंडित रघुनन्दन का आशुकवित्व भी आशुकविता के क्षेत्र में प्रेरक बना। गद्य-पद्य लेखन, काव्य रचना, धारा प्रवाह संस्कृत भाषण, समस्या पूर्ति आदि अनेक क्षेत्रों में सफलता के अनन्तर आशुकवित्व में भी पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई । वि० सं० २००८ के मृगसर मास में राजलदेसर (राज.) में सर्व प्रथम युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ और निकाय प्रमुख मुनिश्री बुद्धमल्ल ने आचार्य श्री तुलसी के सान्निध्य में जनता के बीच आशुकविता की। तेरापंथ धर्म संघ में आशुकविता का वह प्रथम और सफल प्रयोग था। उसके पश्चात् यह क्रम बढ़ता गया और अनेक साधु-साध्वियों ने इसमें योग्यता प्राप्त की। आशुकविता का महत्त्व और चमत्कार देश के दिग्गज संस्कृत विद्वानों ने स्वीकार किया है। तेरापंथ के संस्कृत आशुकवियों में युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ और मुनिश्री बुद्धमल्ल का स्थान प्रमुख है । युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ के आशुकवित्व पर प्रस्तुत निबन्ध में कुछ प्रकाश डाला जा चुका है। उन्होंने पूना, वाराणसी आदि संस्कृत प्रधान क्षेत्रों में व्यापक यश अजित किया है। वाराणसी के संस्कृत महाविद्यालय में स्याद्वाद पर धारा प्रवाह लम्बे संस्कृत वक्तव्य के तत्काल पश्चात् ही विद्वानों द्वारा प्रदत्त विषय पर धारा प्रवाह आशुकवित्व करके उन्होंने सबको चमत्कृत कर दिया । बम्बई में एक विदेशी विद्वान् ने आशुकविता के लिए विषय दिया-“एक ऐसी चीज जो गोलाकर घूमती हुई ऊपर की ओर जाती हो ।” सामान्यतः ऐसे विषयों पर आशुकवित्व कठिन होता है किन्तु युवाचार्यश्री ने तत्काल उस पर श्लोक रचना प्रारम्भ कर दी। वह विदेशी विद्वान् संस्कृत पर इस प्रकार का असाधारण अधिकार देखकर बहुत प्रभावित हुआ । ___ मुनिश्री बुद्धमल्ल ने भी अपने आशुकवित्व का पर्याप्त प्रभाव छोड़ा है । वि० सं० २००८ में अम्बाला छावनी के कॉलेज में वहां के प्रिंसिपल ने 'आधुनिक विद्या" पर आशुकविता करने के लिए कहा। विद्वान् मुनिश्री ने तत्काल अस्खलित रूप में श्लोक म्वण्ड १८, अंक ३ (अक्टू०-दिस०, ६२) २४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524572
Book TitleTulsi Prajna 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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