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________________ आभ्यन्तरो विषय भोगविज़म्भिदाह स्त्वन्तविरागसलिलैः शमतामुपैति । इसी कृत्ति में धर्म को सम्बोधित करते हुग एक अन्य स्थान पर कहा गया है क्रूराः कलंकितकलाश्च यदूर्ध्वहस्ता, यस्मिन् युगे प्रतिगृहं मनिता: श्रिताश्च । तूष्णीं स्थित: किमपि धर्म ! महांस्त्वमित्थं, नात्यद्भुतं भुवन भूषण ! भूतनाथ ! इस प्रकार प्रस्तुत कृति में चमत्कार पूर्ण शैली में विभिन्न प्रश्नों का सहज समाधान निहित है। इसकी रचना वि० सं० २००५ में छापर (राजस्थान) में हुई । इसके कुल २० प्रकरण हैं । जिनका हिन्दी अनुवाद निकाय प्रमुख मुनिश्री बुद्धमल्ल द्वारा किया गया है। कर्तव्य षट्त्रिंशिका भी आचार्यश्री तुलसी द्वारा रचित एक लघु नीतिकाव्य है । शैक्ष साधु-साध्वियों को साधना का सम्यग्दर्शन प्रदान करने के लिए प्रस्तुत कृति की रचना हुई है। एक यथार्थवादी के लिए यथार्थ दृष्टिकोण का प्रतिपादन जितना आह्लादकारी होता है। उतना आह्लादकारी उसके लिए कोई अन्य तत्व नहीं होता। यथार्थ का प्रतिपादन प्रस्तुत कृति की मौलिक विशेषता है। इसमें निःश्रेयस के साथ अभ्युदय की कड़ी भी जुड़ी हुई है। जैन धर्म में विनयमूल पद्धति का विशेष महत्त्व रहा है । विनय की यथार्थता को न समझने वाले को सम्भवतः इस में अतिरंजन लगे किन्तु यथार्थ की भाषा यह है कि आत्म साधक के लिए विनम्र होना अत्यंत आवश्यक है । गुरु और शिष्य के सम्बन्धों में स्वार्थ का संघर्ष नहीं होता, उनमें आत्मार्पण का भाव होता है । प्रस्तुत कृति में इसका सुन्दर चित्रण हुआ है । गुरु के प्रति शिष्य को कर्तव्य बोध देते हुए इसमें कहा गया है विने यो निजसर्वस्वं, मन्यते सर्वदा गुरुम् । आराधयेत् यथा वह्निम्-आहिताग्निः कृतांजलिः ।। इसमें कर्त्तव्य बोध के साथ-साथ अनेक सहज उक्तियों का भी समावेश है-जो अन्तःकरण पर सीधा असर डालती हैं केवलेनोपदेशेन, निश्चित वाग्विडम्बना कर्तव्य बोध की एक अन्य उक्ति भी सहज शब्दावली में गहरी बात कहती है ___ "कृत्याकृत्यविवेको हि, नृपश्वोरन्तरं विदुः" यह ऐकाह्निकी कृति है। तेरापंथ धर्म संघ में शैक्ष साधु-साध्वियों को इसका प्रारम्भ से ही पारायण कराया जाता है। इसकी रचना वि० सं० २००५ में छापर (राज.) में हुई। इसका हिन्दी अनुवाद निकाय प्रमुख मुनिश्री बुद्धमल्ल द्वारा किया गया है । उक्त तीनों नीति काव्यों के कण्ठीकरण की परम्परा भी रही है। खण्ड १८, अंक ३, (अक्टू०-दिस०, ९२) २४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524572
Book TitleTulsi Prajna 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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