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गांधीजी ने जैन जगत् को जगाया
महात्मा गांधी ने अपने जीवन में सत्य, अहिंसा और अपरिग्रह को मूर्त रूप दिया। सत्य वचन पालन, अहिंसावा धारण और अपरिग्रह पूर्व जीवन यापन जिस समय व्यवहार शून्य हो रहा था उस समय गांधीजी ने इन मूल महाव्रतों को अपनाने का संकल्प लिया ।
"अहिंसा परमो धर्मः" सब कहते थे, किन्तु बस कहते भर थे। उसके प्रयोग और जीवन में व्यवहार की बात कोई बिरला ही करता था। दूसरों का भला करना चाहिए । दीन दुःखियों की सहायता करनी चाहिये । प्राणी मात्र को कष्ट नहीं देना चाहिए । मानव, मानव में कोई भेद नहीं होता। इत्पादि सभी, आचरण में लोप हो चुके थे । स्वार्थ परता, आपाधापी और अहमहमिका का सर्वत्र बोलबाला था।
भगवान् महावीर के काल में भी ऐसा ही दुष्काल था। मनुष्य जाति की उस समय भी यही दुरावस्था थी। जातिभेद, छुआछ्त, स्त्री की लाचारी और यज्ञीय कर्म काण्ड की बहुलता थी। समाज और देश में अनाचार पनप रहा था। भगवान् महावीर ने उसका विरोध, अहिंसा और सत्य के प्रयोग से किया और अपने विरोध को वर्धमान करते हुए वे नात्तिपुत्र से महावीर बन गये ।
मोहन गांधी ने भी अफ्रीका में भारतीयों की दुरावस्था देख कर अपने पैर रोके और अहिंसा एवं सत्य के सहारे दानवता से झूझने लगे। उन्हें सफलता मिली। भारत आये तो यहां भी उन्होंने उसी मंत्र की सघन साधना शुरू कर दी। मंत्र का प्रभाव हुआ और स्वामी श्रद्धानंद, कवीन्द्र रवीन्द्र, लाला लाजपतराय, देशबन्धु चित्तरंजन दास, मोतीलाल नेहरू आदि देश के मूर्धन्य नेताओं ने उन्हें अपना नेता मान लिया । वे राजनीतिक शक्ति बनें और उनके द्वारा भारत को आजादी मिली।
उनकी सफलता ने भारतीय समाज को अपना अतीत का गौरव याद दिलाया। विशेष रूप से जैन जगत् को अपने मूलभूत सिद्धान्त अहिंसा और अपरिग्रह पर पुनः विश्वास होने लगा। विजय सेठ और विजय सेठानी, स्थूलिभद्र मुनि का व्रत, रात्रि भोजन त्याग, उपभोग-परिभोग परिमाण, उपवास, आयंबिल जैसे संस्कारी कर्मों पर पुनः श्रद्धा हुई । आचार्य श्री तुलसी के अणुव्रत आन्दोलन और प्रेक्षाध्यान के द्वारा जीवन सुधारने की प्रेरणा हुई ।
फल यह हुआ कि आशा और विश्वास के साथ भविष्य के प्रति अनुराग हो रहा है । विनाश के कगार पर पहुंच कर भी मनुष्य मुड़कर पीछे देखने लगा है और जैन जगत् अपने जीवन मूल्यों को पुनः स्वीकार करने लगा है।
-प० सो०
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तुलसी प्रज्ञा
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