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तेरापंथ का संस्कृत साहित्य : उद्भव और विकास-३
- मुनि गुलाबचन्द 'निर्मोही'
संगीत काव्य
संगीत काव्य का सामान्य वैशिष्ट्य संस्कृत के गीतकाव्यों में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। संगीत में भावातिरेक होता है। कवि अपनी अनुभूति और कल्पना से वर्ण्य विषय तथा वस्तु को भावात्मक बना देता है । जब कवि हृदय अनुभूति की तीव्रता से आप्लावित हो जाता है तब उसकी बाह्य अभिव्यक्ति संगीत के माध्यम से होती है। संगीत काव्य में भावतत्त्व की प्रमुखता होती है। यों तो संस्कृत में काव्य मात्र के लिए रसात्मकता अपेक्षित होती है । किन्तु संगीत काव्य के लिए तो यह अनिवार्य अपेक्षा है । भाव-सांद्रता के अभाव में कोई भी उक्ति संगीत की संज्ञा को प्राप्त नहीं कर सकती । भावों में भी किसी एक भाव का केन्द्रस्थ होना आवश्यक है । अन्य भाव तो उसकी अभिवृद्धि, समृद्धि और पुष्टि में सहायक होते हैं।
काव्य तथा संगीत-दोनों पृथक्-पृथक् अभिव्यक्तियां हैं। काव्य अपनी अभिव्यञ्जना के निमित्त संगीत का सहारा नहीं चाहता और संगीत भी अपनी अभिव्यक्ति के निमित्त काव्य का आलम्बन नहीं चाहता किन्तु दोनों का समन्वय स्वभावतः ही एक उत्कृष्ट अभिव्यक्ति का रूप धारण कर लेता है। अतः संगीत काव्य को भी काव्य का एक उत्कृष्ट स्वरूप मान लिया गया है ।
संस्कृत भाषा में महाकवि जयदेव का “गीत गोविन्द" तथा जैन परम्परा में उपाध्याय विनय विजयजी का "शांत सुधारस" प्रसिद्ध संगीत काव्य है । संगीत काव्यों को तेरापंथ के साधु-साध्वियों ने अस्खलित रखा है। अनेक संगीत काव्य जो अब तक अप्रकाशित हैं, वे काव्य प्रधान और रस पूरित हैं। उनका उल्लेख यहां प्रासंगिक और उपयोगी होगागीतिसंदोह :
मुनिश्री दुलीचन्द 'दिनकर' संस्कृत गीतिमाला
साध्वीश्री संघमित्रा गीतिगुच्छः गीतिगुम्फः
सांध्वीश्री कमलश्री स्तोत्र काव्य
संस्कृत का स्तोत्र साहित्य बहुत विशाल, सरल और हृदयस्पर्शी है । प्रत्येक धर्म में भक्त और भगवान् के बीच भक्ति का गहरा अनुबन्ध होता है। भक्त अपने हृदय की खण्ड १८, अंक ३, (अक्टु०-दिस०, ९२)
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