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________________ 'अर्थ' से तात्पर्य है, जो कुछ भी, जिसे ज्ञान प्रकाशित करता है या कर सकता है, 'अर्थ' है । किन्तु जिसे भी ज्ञान प्रकाशित करता है, वह समस्त 'अर्थ' एक कोटि का नहीं है । उसके तीन प्रमुख रूप हैं-भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक । जिस अर्थ में संवेदना हो वह 'भौतिक अर्थ' है तथा जिस अर्थ को मन एवं बुद्धि ग्रहण करते हैं वह 'मानसिक अर्थ' है । यह भी दो प्रकार का है- एक उत्पन्न और दूसरा अनुत्पन्न । शुद्ध बौद्धिक अर्थ, जैसे गणितीय विषय, ज्यामितीय विषय या बौद्धिक प्रत्यय, अनुत्पन्न अर्थ है तथा जो भौतिक अर्थ एवं अनुत्पन्न मानसिक अर्थ के ज्ञान के संस्कारों से हमारे मनस् में उस अर्थ से सम्बन्धित एक प्रत्यय बन जाता है, वही 'उत्पन्न मानसिक अर्थ' अनुत्पन्न मानसिक अर्थ एवं भौतिक अर्थ का प्रतिबिम्ब होता है, क्योंकि यह उन्हीं से उत्पन्न है । इसी अर्थ के आधार पर भूतकाल के अर्थ को वर्तमान काल में जान सकते हैं । जिस अर्थ को इन्द्रिय, मन एवं बुद्धि से नहीं जाना जा सकता वह ‘आध्यात्मिक अर्थ' है। स्मति 'उत्पन्न मानसिक अर्थ' को अपना विषय बनाती है तथा उसी की सत्ता को सिद्ध करती है । इस अर्थ को किसी अन्य साधन या माध्यम से नहीं जाना जा सकता है । अतः स्मृति को प्रमाण मानना आवश्यक है । अर्थ के इस व्यापक अर्थ को लेने पर स्मति के लक्षण में होने वाले 'अव्याप्ति दोष' का निराकरण हो जाएगा तथा अन्य प्रमाणों के विषयों एवं स्मृति के विषय में भेद हो जाएगा, जिससे स्मृति एवं प्रत्यभिज्ञान के विषयों का एक होने का दोष नहीं होगा तथा साथ में जयन्त के इस आक्षेपस्मृति अर्थ से उत्पन्न नहीं होती है-का निराकरण हो जाएगा। धारणा'का अर्थ है, किसी भी विषय या अर्थ के निर्णीत ज्ञान को मनस् में धारण कर लेना । किन्तु जैन दार्शनिकों ने धारणा की उत्पत्ति मात्र इन्द्रिय प्रत्यक्ष में मानी है, जो न्यायोचित नहीं है, क्योंकि प्रत्येक विषय के ज्ञान की एव प्रत्येक ज्ञान में एक निर्णीत स्थिति एवं संस्कार होता है, जिसे मनस् में धारण किया जाता है । अतः मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्याय ज्ञानों में भी धारणा एवं संस्कार को स्वीकार करना चाहिए। धारणा एवं संस्कार के इस व्यापक अर्थ को लेने पर स्मृति के लक्षण में आने वाले 'अव्याप्ति दोष' का निराकरण हो जाएगा । __इस प्रकार कहा जा सकता है कि पूर्व ज्ञान की निर्णीत स्थिति की धारणा जिस ज्ञान की उत्पत्ति में निमित्त है तथा जो उत्पन्न मानसिक अर्थ को विषय करता है एवं 'वह' इस आकार का है, स्मृति है । सन्दर्भ सूची १. अभिमतानभिमत वस्तुस्वीकारतिरस्कारक्षम हि प्रमाणं, अतो ज्ञानमेवेदम् । -प्रमाण-नय-तत्त्वालोक, सूत्र, १.३ २. जैन-दार्शनिक ज्ञान को आत्मा का अनिवार्य गुण मानते हैं जबकि बौद्ध दार्शनिक ज्ञान को न तो अनिवार्य गुण मानते हैं और न ही आगन्तुक गुण तथा वे ज्ञान को आत्मा की क्रिया भी स्वीकार करते हैं। और ज्ञान को एक २३२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524572
Book TitleTulsi Prajna 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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