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________________ स्मृति, जो प्रत्यक्ष से नहीं होता है, स्मृति है या नहीं ? जो भौतिक अर्थ से उत्पन्न अनुभव की स्मृति से भिन्न स्मृति है उसे स्मृति कहा जाए या नहीं, जैसे स्वप्न की स्मृति, स्मृति की स्मृति आदि । जैन दार्शनिकों द्वारा किए गए स्मृति के लक्षणों में इन स्मृति ज्ञानों का अन्तर्भाव नहीं होता है । अतः स्मृति का लक्षण 'अव्याप्ति दोष' से ग्रस्त है। __ दूसरे, सभी जैन दार्शनिकों के अनुसार स्मृति 'वह' आकार वाली है । यदि स्मृति के इस स्वरूप को स्वीकार किया जाए तब इसमें 'अतिव्याप्ति दोष' आता है, क्योंकि 'वह' आकार स्मृति का ही नहीं होता है, अपितु प्रत्यक्षादि का भी होता है । जब प्रत्यक्ष स्थान से निकटवर्ती वस्तु को विषय बनाता है, तब प्रत्यक्ष 'यह' आकार वाला होता है और जब स्थान से दूरवर्ती वस्तु को विषय बनाता है, तब प्रत्क्षक्ष 'वह' आकार वाला होता है । तीसरे, यदि यशोविजय द्वारा किया गया लक्षण लें, तब उसमें 'असंभवदोष' आता है, क्योंकि उसके अनुसार अनुभव मात्र से उत्पन्न होने वाला ज्ञान स्मृति है, जो स्मृति पर लागू नहीं होता है। चौथे, स्मृति किसको विषय करती है ? इसके जबाब में कहा गया है कि अनुभूत अर्थ को । अर्थात् जिसका पूर्व काल में अनुभव किया हुआ है, उसी अर्थ को स्मृति विषय बनाती है । यदि ऐसा स्वीकार किया जाए तब स्मृति और प्रत्यभिज्ञान दोनों प्रमाण एक हो जाएंगे, क्योंकि प्रत्यभिज्ञान भी अनुभूत अर्थ को विषय करता है । __पांचवें, स्मृति में मात्र इन्द्रिय प्रत्यक्ष से उत्पन्न धारणा को ही निमित्त मानना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि अवधिज्ञान एवं मनःपर्याय ज्ञान से जाने गए विषयों को भी स्मति अपना विषय बनाती है, जबकि इन दोनों ज्ञानों में धारणा की कोई भूमिका नहीं है । तब प्रश्न होता है कि पूर्वकाल में अवधिज्ञान तथा मनःपर्याय ज्ञान से जाने गए विषयों को जब स्मृति ज्ञान अपने विषय बनाता है तब उसका निमित्त क्या है ? दूसरे जन दार्शनिकों की 'धारणा' की अवधारणा बहुत ही अस्पष्ट है, क्योंकि कहीं पर इसको संस्कार कहा गया है, कहीं पर ज्ञान और कहीं पर इन्द्रिय प्रत्यक्ष से प्राप्त ज्ञान को धारण करने को धारणा कहा गया है । किन्तु ये तीनों एक नहीं हो सकते। अन्त में मैं उपर्युक्त समस्याओं के समाधान के रूप में तीन शब्दों, 'वह', 'अर्थ' एवं 'धारणा' का अर्थ स्पष्ट करते हुए स्मृति के स्वरूप को स्पष्ट करूंगा. जिससे शायद् इन समस्याओं का समाधान हो सकता है । 'वह' शब्द दूर के पदार्थों की ओर संकेत करने वाला एक शब्द है, जो पदार्थों की दूरी बतलाता है । यह दूरी दो प्रकार की-दैशिक और कालिक-होती है। प्रत्यक्ष ज्ञान के साथ जब 'वह' शब्द का प्रयोग किया जाता है, तब वह मात्र देशिक दूरी' बतलाता है, जबकि स्मृति ज्ञान में प्रयुक्त 'वह' शब्द "दैशिक' तथा 'कालिक' दोनों को बतलाता है, जिसमें 'कालिक दूरी' प्रधान है तथा 'दैशिक दूरी' गौण । इस भेद को ध्यान में रखने पर स्मृति में होने वाले 'अति व्याप्ति दोष' का निराकरण हो जाता है। खण्ड १८, अंक, (भक्टू०-दिस०, ९२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524572
Book TitleTulsi Prajna 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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