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में देवराज, हेमराज एवं पाट सिंह तीनों भाई श्रीमंत एवं सुश्रावक थे । देवराज ने सोमसुन्दरसूरि को सूरिपद प्रदान किया था। इस हेमराज और कवि के भ्राता सुश्रावक हेमराज में कोई सम्बन्ध बनता है या नहीं, यह अन्वेषणीय है । एक अन्य उल्लेख में पाटण के श्रीमाल कुल के हेमा का परिचय प्राप्त होता है, जिसका भाई देवो १५०८ सं० में पातशाह महमूद के राज्य में राज्याधिकारी था।" यह हेमा "हेमराज" से सम्बन्धित नहीं हो सकता। क्योंकि इसका कुल तो श्रीमाल है, लेकिन पिता का नाम हंसराज न होकर मदनदेव सिंह है।
इसके अतिरिक्त अंतिम प्रशस्ति में एक पंक्ति आयी हैहेमस्स देउ सुक्खं, हेमप्पह वीरजिणचदो । गा० ७६६
वीर जिनेन्द्र हेम एवं हेमप्रभ के लिए सुख प्रदान करें। यहां प्रथम हेम को हेमराज सुश्रावक माना जा सकता है। किन्तु हेमप्रभ कौन है, यह विचारणीय है । अगली गाथा में इस हेमप्रभ का उल्लेख है। कहीं यह कवि
हरिराज के गुरु का नाम तो नहीं हैं ? रचमा वैशिष्ट्य
मलयसुन्दरीचरियं को कवि ने पूर्वकथा के अनुसार लिखने की बात कही है। किन्तु संकेत नहीं किया कि उन्होंने प्राकृत कथा का आधार लिया है या संस्कृत कथा का । चूंकि कवि हरिराज का समय सं० १६२८ के लगभग है अतः उन्होंने अब तक रचित मलयसुन्दरी कथा सम्बन्धी प्राकृत एवं संस्कृत रचनाओं को अवश्य देखा होगा। गुजराती में भी रचनाएं मलयसुन्दरीरास के नाम से इसके पूर्व लिखी जा चुकी थी।" परवर्ती किसी मल यसुन्दरी कथा के लेखक ने कबि हरिराज का उल्लेख या संकेत नहीं किया। इससे लगता है कि प्रस्तुत रचना अधिक प्रसिद्ध नहीं थी। कवि ने इसका अपर नाम "ज्ञानरत्नउपाख्यान" भी दिया है। जयतिलकसूरि (स० १४५६) ने भी अपनी रचना को यह अपर नाम दिया है ।" इस कथा के नायक महाबल एवं नायिका मलयासुन्दरी दोनों ही ज्ञान के रत्न थे। सम्भवतः इसी कारण उनके कथानक को "ज्ञान-रत्नोपाख्यान" नाम कवियों ने दिया है । जयतिलकसूरि एवं कवि हरिराज दोनों ने प्रारम्भ में रत्नत्रय एवं ज्ञान के महत्त्व को प्रकट किया है । यथा
तृतीय लोचनं ज्ञानमदृष्टार्थप्रकाशनम् । द्वितीय च रवेबिम्ब दृष्टेतरतमो पहम् ।। ज्ञानं निष्कारणो बन्धुज्ञानं यानं भवाम्बुधौ । ज्ञानं प्रस्खलतां यष्टिर्ज्ञानं दीपस्तमोभरे ॥
-जयतिलकसूरि. मसुं० श्लोक १७-१८ लोयण तइयं नाणं नाणं दीवंतमोह-रसयलं । नाणं तिहुयणसूरं नाणं अप्पाणं मल-दहणं ॥
-हरिराज, म० सुं०च०, गा० ९ प्रतीत होता है कि कवि हरिराज ने जयतिलकसूरि की संस्कृत मलयसुन्दरी कथा खंड १८, अंक ३ (अक्टू० -दिस०, ९२)
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