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इसका अर्थ "हेमप्रभ आर्य के द्वारा (अथवा के लिए) इस चतुर्थ पडल में सुख का वर्णन किया गया" यदि किया जाय तो व्याकरण की दृष्टि से ''हेमप्पहरिया कियं" शुद्ध पाठ नहीं है। अन्य प्रति के मिलने पर इसका निर्णय हो सकेगा।
मध्ययुगीन जैन साहित्य में हरिराज या हरिकवि का नाम अधिक प्रचलित नहीं है । प्राकृत साहित्य के इतिहास में यह नाम अज्ञात है। किन्तु जैन ग्रन्थ-भण्डारों के कैटलागों में हरिकवि का कुछ विवरण प्राप्त है । १४ वीं शताब्दी के वज्रसेन के शिष्य हरि मुनि ने ' कर्पूरप्रकर" नामक सुभाषित ग्रंथ संस्कृत में लिखा है । इस हरि मुनि द्वारा नेमचरित भी लिखा गला है । इनके कर्पूर प्रकर की एक प्रति वि० सं० १६५० की उपलब्ध है ।" इस हरिमुनि को "हरिकवि” भी कहा गया है । अतः एक सम्भावना यह बनती है कि कर्पूरप्रकर के हरिकवि ही इस मलयसुन्दरीचरियं (प्राकृत) के हरिकवि या हरिराज हों। प्राकृत की यह रचना भी वि० सं० १६२८ में लिखी गई है । अतः १६ वीं शताब्दी के आस-पास हरिकवि या हरिराज का समय रहा हो सकता है। कविवंश एव परिवार
मलयसु-दरीचरियं की प्रथम पुष्पिका में कहा गया है कि "श्रीमाल' के विशाल निर्मल कुल मे श्री हंसराज के पुत्र (अंगज) (कवि) हरिराज ने सरस गाथाओं में जो अर्थों का विस्तार था, उसे संक्षेप में प्रस्तुत किया है ।
श्रीमालस्य विशालवंशविसले श्री हंसराजांगजो।
जे अत्थे हरिराम गाह-सरसे संखइ वित्थारिओ॥ इससे ज्ञात होता है कि कवि हरिराज श्रीमाल कुल में हंसराज के पुत्र थे। श्रीमाल कुल जैन परम्परा में प्रसिद्ध है। ज्ञात होता है कि सं० १५५० में हंसराज, नामक एक श्रावक हुए थे, जिनके भाई एकादे ने ‘षडावश्यकअवचूरि' की प्रति तैयार की थी।" अतः १५-१६ वीं शताब्दी में हंसराज नाम प्रचलित था। श्रीमाल कुल के शाह हरिराज जा उल्लेख भी प्राप्त होता है ।१४ किन्तु उनका इस कवि हरिराज से कोई सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता।
कवि हरिराज ने आगे कहा है कि ज्ञान-दर्शन-चरित्र के गुणों की निधि और शील के लिए विख्यात मलया का जो चरित है वह प्रथम जन्म लेने वाले (बड़े भाई) हेम के लिए सुखकारी हो । आगे भी कवि ने सुश्रावक श्री हेमराज के लिए इस रचना को लिखने का तीन बार उल्लेख किया है।
___सुश्रावक श्री हेमराजार्थ कवि हरिराज विरचिते......।
इससे स्पष्ट है कि हेमराज कवि के बड़े भाई ही नहीं अपितु इस रचना के निर्माण में प्रेरणादायक भी थे। इस तरह एक ही परितार में हंसराज (पिता), हेमराज (भ्राता) एवं हरिराज (कवि) का होना स्वाभाविक लगता है ।। तीनों की नामराशि एक है और "राज" शब्द प्रत्येक नाम के अन्त में जुड़ा हुआ है।
यह हेमराज नाम भी १५-१६ वीं शताब्दी में प्रचलित था । वृद्धनगर (बड़नगर) १८४
तुलसी प्रज्ञा
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