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________________ का अवलोकन कर इस प्राकृत कथा को संक्षेप में प्रस्तुत किया है । इन दोनों रचनाओं के अन्तःसाक्ष्य से स्थिति अधिक स्पष्ट हो सकेगी कि इस प्राकृत रचना पर पूर्ववर्ती कवियों का कितना प्रभाव है । कवि हरिराज ने अपनी इस रचना को सरस्वती का आदेश मानकर लिखा है । उनका कहना है कि यह मलया सती का चरित्र अच्छे छन्दों (पद्यों) में प्राकृत में कहा गया है । इस काव्य को कवि हरि ने अपनी बुद्धि से श्री हेम के आग्रह के कारण शील के महात्म्य को प्रकट करने के लिए, सज्जन लोगों के संगम और प्रिय जनों के मिलन के आनन्द हेतु सुश्रावक श्री हेमराज के लिए लिखा है । २२ कवि ने प्राकृत भाषा में कथा लिखने की बात कही है । किन्तु कई स्थानों पर उन्होंने संस्कृत के प्रयोग द्वारा कथा को आगे बढ़ाया है । यथा विक्रीता भूरिद्रव्येण तेन सापि महासती । वस्त्र रंजणकारेण क्रीता निःकरूणेन हि ।। ५५४ ।। २२ एवं — रति न लभते क्वापि लुट्ठती निसि भूतले । संदिष्टो दुष्ट सर्पेण निग्रतेन कुतोअपि सा ।। ६१३।।‍ संस्कृत का प्रयोग सूक्तियों आदि के लिए भी किया गया है । यथा वरं मृत्यु न शीलस्य भंगो येनाक्षतं वृतं । देवत्वं लभते वा नरकं च क्षतंव्रतः ॥ ५७८ ।। २५ तथा - सतीनां शीलविधवंसः हतो लोकेअत्र निश्चितं । अकीर्ति कुरुते कामं तीव्र दुःख ददाति च ॥५८० ।। ग्रन्थ की भाषा पर गुजराती आदि क्षेत्रीय भाषाओं का भी प्रभाव स्पष्ट है । कवि ने स्वयं ऐसे पद्यों को " दोहड़ा" कहा है। महासति मलया के शील पर जब संकट आया तो कवि उस पर कुदृष्टि रखने वाले को लक्ष्य कर कहता है परितिय पिक्खिय जे पुरिस सुरय सुहं इच्छंति । ते रावण दुक्खं निव पल पचक्ख लहंति ॥। ५८३ ।। जब मलया और महाबल का बहुत दिनों के बाद मिलन हुआ तो उन्हें इस मिलाप से अतिशय आनन्द हुआ । कवि कहता है कि प्रियजनों के मिलाप का आनन्द जिनेन्द्र के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं जानता बल्लह-जगमेलाबउ जं सुह हियउइ होइ । लिहि पमाणु जिणवर कहइ अवर न जाणइ कोई ।। ६५४ ।। ७ मलयसुन्दरीचरियं की प्राकृत की तीन पांडुलिपियों का परिचय हमने जो पहले लेख में दिया था, उनसे पूना की यह प्रति भिन्न है । बम्बई, आगरा, लींबड़ी, जैसलमेर और सूरत के ग्रंथभंडारों में इस कथा कि जिन प्राकृत पांडुलिपियों के होने का संकेत है" वे अभी प्राप्त नहीं की जा सकी हैं। उन्हें देखने पर ही ज्ञात होगा कि पूना की १८६ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524572
Book TitleTulsi Prajna 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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