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४. भापका मनीषि-लेख 'पञ्चपरमेष्ठि पद और अर्हन्त तथा अरिहन्त शब्द' ऐतिहासिक
साक्षियों की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। आपने इसमें ऋग्वेद (१००० बी. सी.) तक की साक्षियां प्रस्तुत की हैं । आपका संदर्भ नं० १२ भी महत्त्वपूर्ण है । पर यही काम तो आप को करना था कि सुदास और नहुष का अहंन्' पद के साथ क्या संबंध था? मैंने एक शोध ग्रन्थ में आदि अर्हत् महान् ऋषभ के साथ अर्हत् महान् मनुविश्वामित्र-राम-कृष्ण- द्वैपायन कृष्ण (तथाकथित व्यास)-पार्वमहावीर-बुद्ध---गौतम के साथ-साथ नहुष ययाति आदि पञ्चजनाः" को भी अर्हत् महान् सिद्ध किया है पर सुदास अर्हत्-महान् न थे । वे तो मात्र एक हिंसक वीर योद्धा थे जिन्होंने तृतीय ब्रह्मार्यो-भारतेय-दाशराज्ञ-महायुद्ध में आक्रामक ब्रह्मार्य सेना का प्रधान सेनापतित्व किया था। इन्द्र व वशिष्ठ उसके अधीन छोटे सेनापति थे। इन ऋग्वेदीय मंत्रों की इतिहास परक व्याख्या का आप एक वास्तविक शोध लेख लिखें। ५. दूसरी महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक साक्षी आपने महाराजा खारवेल जो प्रथम शती ई०
पू० के मध्य में हुए, की दी है। इसका ऐतिहासिक अर्थ' यह कि परमेष्ठिपद में इस कालक्रम तक केवल 'अर्हत् और सिद्ध' को ही नमस्कार किया जाता था आचार्य-उपाध्याय-साध गण को नहीं । प्रशस्ति में 'सव्व' शब्द का सिद्ध के साथ होना व अर्हत् शब्द के साथ न होना अखरता है। क्यों ? शोध करें । आचार्य के साथ 'सव्व' नहीं और साधुगण के साथ, यह क्यों ? इसका एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि प्रथम शती ई० में विभाजित होने से पहले यानी दिगम्बरश्वेतांबर में विभाजित होने से पहले अविभाजित जैन-समाज आचार्य-उपाध्यायसाधु-त्रयी को नमस्कार नहीं करता था। क्यों ? कालक्रम व द्वन्द्वात्मक रूप में यह कब प्रारंभ हुआ और क्यों ? इस 'क्यों ?' का उत्तर देना इतिहासज्ञ का मूल
व प्रथम उत्तरदायित्व है। ६. अंग्रेजी सेक्शन में डॉ० उपेन्द्रनाथ राय का 'Xandrime And Sandracottus'
मनीषि लेख आकर्षक है और आपकी सम्पादकीय टिप्पणी भी। इसमें लेखक चन्द्रगुप्त पर जोर न देकर वह भूगोल में फंस गया है । इतिहासज्ञ को चन्द्रगुप्त का कालक्रम निश्चित करना अनिवार्य है । जैन वाङ्मय में उसका कालक्रम, भद्रबाह के जीवन काल में वही निश्चित किया गया है जो आधुनिक इतिहास स्वीकार करता है। यानी C. ३२५ B. C. to C. ३०३ B.C.। उसी के युग में प्रथम पाटलिपुत्र आगम वाचना हुई थी। आधुनिक इतिहास ने भी इस इतिहास-सत्य को स्वीकार किया है । इस मनीषि-लेख में चन्द्रगुप्त महान् के साथ घोर अन्याय हुआ। विस्तार से चर्चा की ऐतिहासिक आवश्यकता है। ७. अपने सभी मनीषि-लेखकगण से भी, कृपया अनुरोध करते रहिए कि वे इतिहासविषयक शोध लेख लिखें और सम्यक् शोध दृष्टि व शोध पद्धति अपना कर लिखें ।
इससे 'तुलसी प्रज्ञा' का आकर्षण जागतिक-क्षेत्रों में भी बढ़ेगा। इतिहास सत्य है । खण्ड १८, अंक २, (जुलाई-सित०, ९२)
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