________________
मिथकवाद व मिथककथावाद मिथ्यात्व है। यह सत्य उनकी संज्ञाओं से भी प्रत्यक्ष
८. आप 'तुलसी प्रज्ञा' में पाठकों के विचारों के अंश छापते रहते हैं। पर मेरी मत
सम्मति सांगिक है अतः संदर्भ से पृथक् कर इसे न छापें छापें तो 'सांगिक-पूर्ण
सम्मति' छापें वरना न छापे ! ९. 'तुलसीप्रज्ञा' में अनेतिहासिक यानी मिथकीय लेख तो अधिकांश छपते ही रहते हैं
पर मैं 'निषेधक-सम्मति' कभी प्रस्तुत करता नहीं। यह शुभ होगा यदि वे मनीषिगण लेखक भी अपने लेखों का आधार इतिहास को बनावें । वे उसी इतिहास को सम्यक्-इतिहास स्वीकार करें जो 'इतिहास-सिद्धांत' के अनुसार अस्तित्व में आया
हो । १०. आपके सम्पादकत्व को उत्कृष्ट बनने में सहयोग देने की दृष्टि से उपरोक्त सुझाव __हैं । जिन्हें आपका विवेक स्वीकार करे उन्हें माने । बाकी मुझे लौटा दें। नोट-अंक के अन्तिम पृष्ठ पर आपने 'ऋषभ देव मुद्रा' छापी है । यह C. ४००० B. C.
की है पर इसमें ऋषभ का C, ९००० B. C. से C. १००० A. D. का इतिहास छिपा पड़ा है। इस पर एक विस्तृत शोध लेख छापिए।"
प्रबुद्ध पाठक और लेखकों से निवेदन है कि आरमयोगी के सुझावों पर अपनी प्रतिक्रियाएं भेजें और 'परमेष्ठीपद' और 'चन्द्रगुप्त महान्' विषयक अपने विचार मी प्रकाशनार्थ भेजें।
-संपादक २. 'तुलसी प्रज्ञा' के १७ वें खण्ड के सभी तथा १८ वें खण्ड का पहला अंक मिला। आप निःसन्देह 'तुलसी प्रज्ञा' के माध्यम से जैन विद्या के क्षेत्र में अब तक अछूती और महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रकाश में ला रहे हैं। जैन कला के किसी विषय को लेकर 'तुलसी प्रज्ञा' के लिए मैं भी कुछ लिखने का प्रयास करूंगा।
-डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव स्टाफ क्वार्टर्स, ५ डी/४ लिडिल रोड़, जार्जटाउन
इलाहबाद-२११००२ ३. आप द्वारा प्रेषित अप्रेल-जून १९९२ का अंक मिला। यह निर्विवाद है कि जबसे
आपने 'तुलसी प्रज्ञा' के संपादन का कार्यभार संभाला है, उसमें चार चांद लग गये हैं । आपकी सफलता की हेतु कामना करता हूं।
प्रो० भूपतिराम साकरिया
भूतपूर्व अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, 'सुविज्ञा', बल्यमविद्यानगर (गुजरात)
१७०
तुलसी प्रज्ञा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org