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पत्राक्षः
___आत्मयोगी राम ने 'इंस्टीट्यूट ऑफ भारतलोजीकल रीसर्च, बीकानेर' से एक विस्तृत पत्र लिख भेजा है कि उसे 'सोगिक पूर्ण सम्मति' रूप में ही छापें । इसलिये उनका पत्र अविकल रूप में नीचे प्रकाशित किया जा रहा है"प्रिय भाई डॉ० सोलंकी,
आपने मेरे पास 'तुलसी प्रज्ञा' के पांच अंक भेजे पर कल प्राप्त हुआ पांचवा अक, कुछ ऐतिहासिक सामग्री के कारण मुझे आकर्षित कर सका। मेरी बधाई स्वीकार करें। इस संबंध में इन तथ्यों पर विचार करें१. आपने मेरे संदर्भ से अपने लेख-'उत्कल में कलिंग जिन' पर मुझे 'वानप्रस्थी राम'
के नाम से पहचाना या पहचानवाया है । बैकेट में पुराने नाम (रामचन्द्र जैन) को देना अनावश्यक था। आपको याद होगा कि आपने अपनी छपी पुस्तक “एक ही संवत्सर' पर 'सम्मति' मेरे से लिखी थी तब मैंने आपको कहा था कि इसे केवल 'राम' या 'आत्मयोगी राम' नाम से छापें । डॉ० अमृत नाहटा ने भी एक तेरापंथी साधु की योग-पुस्तक पर मेरी सम्मति, पिलानी की एक हिन्दी पत्रिका में इसी नाम से छपवाई थी। मैं १९७३ से 'आत्म संन्यास' में आ गया और १९८१ में आत्मयोग सिद्धि के बाद से इसी नाम से मेरी पुस्तके व शोध लेख छपे है । कृपया भविष्य में जरूरत पड़े तो केवल 'राम' नाम से छापें । चाहें तो आत्मयोगी संज्ञा लगा सकते
२. मैं अपने लिखे जा रहे ‘महाग्रन्थ' में आपके लेख का ही संदर्भ दूंगा। ३. हमारे इतिहासपरक लेख भी कालक्रमिक, द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक शोध दृष्टि
व सांगिक समालोचनात्मक पद्धति के अभाव में अपने पूर्ण व सम्यक् निष्कर्षों पर नहीं पहुंच पात। प्राच्य विद्या की ऐतिहासिक व समालोचनात्मक शोध पद्धति को मैंने १९५२ से ही उपरोक्त प्रकार से विकसित कर अपन शोध ग्रन्थ लिखे । इसका वर्णन मैंने अपने प्रथम छपे The Most Ancient Aryan Society की भूमिका में किया था । यह पुस्तक मैंने १९६४ एडी, में आचार्यश्री जी को गंगाशहर में भेंट की थी। अब तो मैंने इतिहास, मिथकवाद और मिथक कथावाद सिद्धांतों पर एक शोध ग्रन्थ ही लिख दिया है । आप यह दृष्टि व पद्धति स्वीकार कर शोध लेख लिखें तो वे शोध लेख होंगे नहीं तो केवल मनीषि (एकेडेमिशियन) लेख । आपका यह लेख उदाहरण है।
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तुलसी प्रज्ञा
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