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रखा है जिससे समय-समय पर नित नूतन रत्न प्रसूत हो रहे हैं । लेखिका ने अपने अध्ययन में पांचों शतकों से अनेकों पद्यों का चयन किया है और पद्यों में आये अप्रसिद्ध शब्दों के अर्थ को खोलने का प्रयास भी किया है । कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है जैसे वह स्वयं उसकी स्वानुभूति कर रही है।
लेखिका को अपनी बात दूसरों के शब्दों में कहने का भी महारथ हासिल है। विषय प्रवेश में २९ उद्धरण देकर वह कहती है कि 'गीति के मूल में भावोद्रक जागृत करने में दुःख की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है । कवि का व्यष्टि रूप दुःख ही गीति के माध्यम से समष्टि रूप धारण कर पाठको के हृदय की संवेदनशीलता को जागृत करता है ।' मुक्तक काव्य की परम्परा, संस्कृत गीतिकाव्य के मूल तत्त्व और संस्कृत गीतिकाव्य को विशेषतायें-शीर्षकों का भी यही हाल है।
किन्तु उसने समन्तभद्र, मयूर भट्ट, बाणभट्ट, आनन्दवर्धन, मूककवि, सोमेश्वर, भर्तृहरि, पद्मानंद, भुजबली शास्त्री, अमरूक, नरहरि, जनार्दन और नीलकण्ठ जैसे शतक प्रणेताओं का काव्य सौष्ट व बता कर आचाय विद्यासागर के शतकों का काव्य शास्त्रीय अनुशीलन करने का बीड़ा उठाया है । स्वयं वह आचार्य श्री विद्यासागर के प्रति भक्ति-विह्वल भी है जैसा कि समर्पण से स्पष्ट है ।
फिर भी उसका शोध कहीं भी पक्षपाती नहीं लगता । उसका यह निष्कर्ष है कि बाणभट्ट की अभिनव कल्पनाएं (चण्डी शतक में), आनन्दवर्धन के शब्दालंकार, मूक कवि की भक्ति, आचार्य समन्तभद्र का पाण्डित्य और सोमेश्वर की सुबोधता तथा मयूर भट्ट के काव्य वैभव को आचार्य विद्यासागर के अमूर्त चिन्तन तथा शान्त रस और माधुर्य के अतिरेक के साथ समजन किया जा सकता है जो एक-एक छन्द-प्रयोग से स्रग्धरा पर उतारा गया है । फलतः ये काव्य पाठकों को ब्रह्मानन्द सहोदर-काव्य रस में निमज्जित करते हैं
समुपलब्धौ समाधौ साधुस्तथागतरागाधुषपाधौ ।
यथा सरिद् वारिनिधौ मुदमुपैति च निर्धनो निधौ । सचसुच साधु की राग रहित समाधि में और नदी के समुद्र-संगम में आनंद ही आनंद है।
-परमेश्वर सोलंकी
करत ह
संसारविषवृक्षस्य द्वयमेवामृतं फलम् । सुभाषित रसास्वादः सद्भिश्च सह संगतम् ॥
खण्ड १८, अंक २, (जुलाई-सित०, ९२)
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