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________________ नीतिशतक और ९ शृंगार शतकों का विवेचन किया है । द्वितीय खण्ड में आचार्य विद्यासागर के द्वारा रचित ५ शतकों का पृथक् से अध्ययन किया है और उनके अमूर्तकथ्य को मनमोहक ढंग से प्रस्तुत किया है । अभी पिछले दिनों में पं० पन्नालाल साहित्याचार्य ने पञ्चशती - शीर्षक से आचार्य विद्यासागर के पांचों शतकों को, संस्कृत टीका और हिन्दी रूपान्तरण के साथ ज्ञानगंगा, दिल्ली के द्वारा प्रकाशित करवाया है । सन् १९९१ में छपे इस संस्करण में स्वयं आचार्य विद्यासागर द्वारा किया शतकों का पद्यानुवाद भी प्रकाशित है । जो स्वतंत्र रूप से हिन्दी पाठकों के लिए उत्कृष्ट साहित्य सोपानों पर शान्त रस की निर्झरिणी सी बहता प्रतीत होता है । आचार्य विद्यासागर पिछले लगभग बीस वर्षों से साहित्य स्रजन कर रहे हैं । हिन्दी और संस्कृत में वे समान रूप से उदात्त रचना करते हैं । उनके द्वारा किए अनुवाद भी बहुत सरम और मनोहारी हैं । समण सुत्त का अनुवाद तो सचमुच 'जैनगीता' ही बन गया है | आप ने संवत २०३१ में जब वे अजमेर - राजस्थान में बर्षावास कर कर रहे थे तो श्रमकशतक की रचना की थी । कुण्डलपुर सिद्ध क्षेत्र में निरंजनशतक, फीरोजाबाद में भावनाशतक, कुण्डल गिरि क्षेत्र में परिषहजयशतक और ईसरी (गिरिडीह) में सुनीतिशतक रचा गया । इन पाच शतकों में अनेकों शब्द ऐसे प्रयुक्त हैं जो साधारणतया संस्कृत वाङ्मय में कम प्रयोग हुए हैं । शब्दालंकार भी स्थान-स्थान पर बंधेज की साड़ी में बनी बेल बूंटी की तरह सजे हैं । आचार्यश्री की अनूठी सूझ-बूझ भी जगह-जगह चमत्कार उपस्थित करती है । दो उदाहरण देखिये --- शृंगार एवैकरसो रसेषु, न ज्ञाततत्त्वाः कवयो भणन्ति । अध्यात्म शृंगंत्विति राति शांतः शृंगार एवेति ममाशयोऽस्ति ।। कि रसों में एक शृंगार ही प्रमुख है - ऐसा यथार्थ वेत्ता कवि नहीं कहते । मेरा अभिप्राय यह है कि जो अध्यात्म को शृंग (शिखर) पर बैठाते हैं वे ही शृंगार करते हैं । वर्णस्य पात्रं किल विश्व शास्त्रं, मलस्य पात्रं तव रूपि गात्रम् । चिद्वस्तुमात्रं हि सुखस्य पात्र, सर्वपात्र स्मर चेतसाऽत्र ॥ कि जैसे समस्त शास्त्रों में अक्षर भरे हैं, तेरे सुन्दर शरीर में मल भरा है । इसमें केवल चैतन्य ही सुख का पात्र है । शेष सब अपात्र हैं । सोच के देख ले ! उक्त दोनों उदाहरण नीति शतक के हैं । वही सहज बोधगम्य भी है । वस्तुतः पूर्व संस्कार जन्य वैराग्य ने आचार्य विद्यासागर में श्रुत महोदधि को विडोलित कर १६६ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524571
Book TitleTulsi Prajna 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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