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________________ जैनदर्शन में कर्म - मीमांसा का अपना महत्त्व है । यहां कर्म को पौद्गलिक माना गया है । कर्म-मीमांसा में कर्म के लक्षण, कर्म-बन्ध के हेतु, कर्म विपाक आदि का विस्तार से वर्णन हुए हैं। आत्मा में कर्म प्रवेश ही बन्ध है और कर्म रहित होना ही मोक्ष है । कर्म मीमांसा के अन्त में संमुद्घात का जो वर्णन किया है वह जैन दर्शन की अपनी विशिष्टता है । आत्मा को देह परिमाणी मान कर भी, मूल देह का त्याग न कर तैजस और कर्मणा शरीर के साथ जीव प्रदेश का शरीर से बाहर निकालना ही समुद्घात है— समुद्घात है वेदना, वैक्रिय, तेजस हेय । है कषाय और मारणान्तिक आहारक ज्ञेय । सप्तम केवल केवली, प्रभु के ही विख्यात | वेध नाम और गोत्ररो, विषय करे साक्षात् । दर्शन में ईश्वरवाद, अवतारवाद, श्रमण संस्कृति आदि सभी का अपना महत्त्व है । मुनिवर ने इन तीनों महत्त्वपूर्ण विषयों पर भी पूर्ण प्रकाश डाला । ईश्वर को जगतकर्ता मानने वालों के प्रति मुनि ने निम्नलिखित टिप्पणी की है जो जैन अनीश्वरवाद पर स्पष्ट प्रकाश डालती है- उदासीन कृत कृत्य प्रभु वीतराग भगवान । कैसे जगरचना करे, निज में लीन महान । साधना के महत्व को भी मुनिजी ने अपनी पुस्तक में स्थान दिया है । सम्यग्-ज्ञान प्राप्ति में साधना ही सहायक है । सम्यग् ज्ञान बहुत ही दुर्लभ है, मुनिवर ने अपने दोहों के माध्यम से बताया है कि साधना किस प्रकार सम्यग् ज्ञान को दुर्लभ से सुलभ बनती है । अन्त में मन और इन्द्रियों के महत्त्व पर भी प्रकाश डाला है । साधना में इन इन्द्रियों का भी अपना महत्त्व है । मति ज्ञान और श्रुत ज्ञान तो संयमी सत्ता के आधार है । इन्द्रियों से ही शब्दादिक ज्ञान होता है । इन्द्रियां, मन आदि के विभिन्न कार्यों का अच्छा वर्णन है । मनोन्द्रिय का महत्त्व इस प्रकार दर्शाया है होता सकल शरीर में, मन का अपना स्थान । होती है चैतन्य सह, मन की व्याप्ति महान । मन के साथ ही आत्मा के विभिन्न विकार, राग-द्वेष, मोह, शोक आदि की भी व्याख्या की है । चार कषाय क्रोध मान, माया और लोभ किस तरह बन्ध का कारण वनते हैं | आत्मा के अनन्त गुणों का किस प्रकार आवरण करते हैं, और किस प्रकार इन कपायों पर विजय प्राप्त की जा सकती है, इसकी व्याख्या कर कषायों के नाश की सुन्दर व्याख्या की है । इस प्रकार 'जैनदर्शन: दिग्दर्शन' पुस्तक में मुनि गणेशमलजी ने जैन सिद्धान्त और व्यवहार का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है । दोहों के रूप में लिखी यह पुस्तक सहज ही ध्यान आकर्षित कर लेती है साथ ही अपना स्पष्ट प्रभाव भी छोड़ जाती है । सिद्धांत रूप में विस्तार से कही गई बात की तुलना में संक्षिप्त दोहों में कही गई बात अधिक प्रभावी बन पड़ी है । उदाहरण के लिए मोक्ष का वर्णन देखें - १६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org
SR No.524571
Book TitleTulsi Prajna 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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