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अवधि, मनःपर्यव, केवल्य आदि सभी पर प्रकाश डाला है ।
सम्यक्त्व मीमांसा में सम्यग्दर्शन की महिमा पर प्रकाश डाला गया है। सम्यग् ज्ञान तो जीव का स्वरूप ही है, लेकिन कर्म पुद्गलों के आश्रव से, कषायों आदि के प्रभाव से आत्मा का यह स्वरूप आवृत्त हो जाता है। इसे अनावृत करना ही जैन दर्शन का उद्देश्य है । इस प्रकरण में मुनिवर ने बहुत ही सुन्दर ढंग से यह विवेचन किया है कि किस प्रकार मोहनीय, ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के प्रभाव में आत्मा बन्ध को प्राप्त होती है और किस प्रकार मोहनीय आदि प्रवृत्तियों को उपशम कर के सम्यक्त्व की सिद्धि की जा सकती है।
आचार-मीमांसा में पंच महाव्रत, अणुव्रत, समिति, गुप्ति, संयम, दान आदि विभिन्न विषयों पर प्रकाश डाला गया है। ये सभी जैन साधना के स्तंभ हैं । साधना में आराधना का अपना एक विशिष्ट स्थान है। मुनिवर ने इसकी स्पष्ट व्याख्या आराध्य-मीमांसा में की है। इसमें गुरु और धर्म की बहुत ही सुन्दर व्याख्या हुई है । मुनिवर ने निम्नलिखित दोहे में इसे स्पष्ट किया है
निज आत्मा निज देव है, निज आत्मा गुरुसार । निज आत्मा निजधर्म है, निश्चय नय अनुसार ।।
आत्म-मीमांसा के अभाव में पुस्तक अधूरी रहती । आत्मा क्या है ? उसका स्वरूप क्या है ? आदि प्रश्नों को जाने बिना मोक्ष असंभव है । आत्म-मीमांसा में मुनि जी ने आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व की महिमा का वर्णन किया है। उन सिद्धान्तों का खण्डन भी किया है जो अनात्मवादी है या आत्मा की नित्य सत्ता को अस्वीकार करते हैं । उनको प्रति उत्तर देते हुए ही मुनि जी ने आत्मा के स्वरूप 'पुनर्जन्म' आत्मा की श्रेणियां, आत्मध्यान, आत्म-निरीक्षण आदि विभिन्न धारणाओं पर प्रकाश डाला है ।
मुनिवर ने अपनी पुस्तक में 'दार्शनिक विवेचना' प्रकरण में विभिन्न दार्शनिक मतों की विवेचना की है। जनदर्शन में मान्य तत्त्वों की गणना, स्वरूप आदि के साथसाथ बालवाद, स्वभाववाद, कर्मवाद नियति-वाद, पुरुषार्थवाद, समन्वयवाद, नयवाद, अनेकान्तवाद, क्षणिकवाद, मायावाद आदि विभिन्न वादों की स्पष्ट व्याख्या की है और उनका खण्डन भी किया है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित दोहों से मायावाद का पक्ष और उत्तर पक्ष बहुत ही सारगर्भित तरीके से प्रस्तुत किया है
वास्तव में कुछ है नहीं, जग है माया रूप । मिथ्या स्वप्न समान है, मायावाद स्वरूप ।। जैन उत्तर पक्ष-वस्तु वस्तुतः सत्य है, है यथार्थ यह बात ।
असद् वस्तु में हो नहीं अर्थ क्रिया साक्षात् ॥" इन मतों का खण्डन कर मुनि जी ने जैन अनेकान्त एवं स्याद्वाद की स्थापना की है। ज्ञान की सापेक्षता की स्थापना और निरपेक्षता का खण्डन कर यह बताया गया है कि के वली को ही पूर्ण ज्ञान हो सकता है, अन्य सभी ज्ञान आंशिक होते हैं, अतः वे आंशिक ज्ञान की पुष्टि करते हैं।
खिण्ड १८, अंक २ (जुलाई-सित०, ९२)
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