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________________ होता तो उसे ''सपिस्' शब्द के अनेकों प्रयोग भी मिल सकते थे। उसके द्वारा संग्रहीत शब्दों में अनेकों ऐसे हैं जो संस्कृत-प्राकृत और प्रादेशिक भाषाओं में व्यवहार शून्य हो गये अथवा परिवर्तित-परिवद्धित हो गये किन्तु राजस्थानी में अभी भी उसी वागर्थ को लिये हुए हैं जिस अर्थ में वे पाणिनिपूर्व प्रयोक्तव्य थे। कुछ उदाहरण देखिए१. अझकइ-अचानक झरोखे से देखना अथवा चौंकने का भाव जो "अकअज कुटि लायां गतौ"-धातु के प्रयोगों में अकति, अक यति, अजति, अजयति - कुटिलमा चरति में है। २. आडंग वर्षा पूर्व का मंडाण – यह भाव भवादि की 'अडिगतौ' और 'अडि आवरणे'-धातुओं में स्पष्ट है । शतपथ ब्राह्मण (११.१.६.१.२) में यह प्रसंग है- सर्गादौ प्रकृतेः परिणामभूतं यदिहरण्यं महदण्डं समुदपद्यत, तद आयरियाकमा भेदनमप्सु पर्यप्लवद् प्रासर्यद्वा । तदुक्तम्-तासु (अप्सु) तप्यमानासु हिरण्य माण्ड सम्बभूव ।-अस्य महदण्डस्योत्पत्ति समकालमेव या गतिः समुदपद्यत सैव "अण्डते' इत्याख्यातेनोच्यते ।' ३. आरणि-लोहार की भट्टी-यही भाव शब्द करने वाली धातु में मौजूद है'अण रण रिणि वण भण मण कण किण कुण खुण वण चण गुण गण गिण षण शण पण फण हण धण घृण तृण पुण पूण मुण पीण पिण जण झण हिरण इरण क्षण ढण दुण धण कण इण ष्टूण ष्टन ष्ट्वन धन ध्वन श्वन वन चन शब्दे ।' जैसे अणति - ध्वनयति, अणिः लघु द्रव्यम् । अणुः, अणि: अल्प परिधि द्रव्यम् । ४. ओळग-को संपादक ने 'अप लग्न' से उत्पन्न बताया है और सेवा, चाकरी आदि अर्थ किए हैं । किन्तु पाणिनि पूर्व की धातुओं में दो धातु हैं - 'ओलजी, ओलस्जी वीडायाम्' और 'ओलडि उत्क्षेपे ।' इन दोनों धातुओं का मिलाजुला भाव ओळग में दीख पड़ता है। ५. कोड-चाह, उत्पाह आदि अर्थ किया गया है किन्तु 'कुड बाल्ये'- धातु से कुड़, ___ कोडः, कोडकः--त्रयः क्रीडके-अर्थ अधिक उपयुक्त है। ६. खेड़ा -- गांव या ढाणी अर्थ में प्रयुक्त होता है । 'खड खडि कड कडि भेदे' पृथक् करणे, खाडयति = पृथग् भवति । 'खडि रूडि मुडि खण्डने'---अवयव विभागे, खण्डति निकृन्तति (विमजति)-इन दोनों धातुओं से एक ही भाव निकलता है। ७. चवणो-कहना अर्थ में प्रयुक्त है जो 'अभ्र वभ्र मग्र चव रव धव गतौ'---धातु में चवति पीडां निवर्तयति (कहकर पीड़ा मिटाता है) में स्पष्ट है । ८. डंबर के अनेक अर्थ सुझाये गये हैं किन्तु अधिक खाना और खेलना अर्थ में इसका प्रयोग अधिक सार्थक है ।' लुबि रूबि तुबि तबि कबि विबि अबि णिबि लबि रबि शिवि णवि श बि चुबि चुब चवि चब हिदि षुवि नवि हेरबि ढालिबि गेलबि ष्टबि ष्टब ष्टुबि टबि डबि कूबि कडबि डुबि तावि हबि नुणुबि मर्दने'-- १५८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524571
Book TitleTulsi Prajna 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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