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पुस्तक समीक्षा
१. "राजस्थानी शब्द सम्पदा"-सम्पादक, मूलचंद 'प्राणेश' प्रकाशक, राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार समिति, श्रीडूंगरगढ़ (चूरू), प्रथम संस्करण-१९९०, पृष्ठ१४८, मूल्य-५०/-रुपये।
श्रीडूंगरगढ़ समिति ने कुछ समय पूर्व प्राचीन शिलालेखों में राजस्थानी भाषा' पुस्तक प्रकाशित की थी तो यह घोषणा की थी कि हिन्दी-राजस्थानी भाषा के समन्वित स्वरूप पर विश्लेषण हेतु वह शीघ्र ही एक नया प्रकाशन करेगी। 'प्रकाशकीय' के अनुसार "राजस्थानी शब्द सम्पदा'' उसी घोषणा की क्रियान्विति है। इसमें विलुप्त होती जा रही राजस्थानी भाषा की प्राचीन शब्द सम्पदा को डिंगलपिंगल के प्राचीन ग्रंथों से उद्धरण देकर बहुश्रुत और मान्य रूप में प्रस्तुत किया गया है और उसके अनुचित अर्थों का तर्क संगत ढंग से परिष्कार भी किया गया है ।
भाई मूलचन्द 'प्राणेश' राजस्थानी भाषा को समर्पित व्यक्ति हैं। राजस्थानी ग्रंथों के संपादन में, क्षेत्रीय जानकारी के अभाव में होने वाली अनर्थकारी भूलों की ओर वे विद्वज्जनों का बराबर ध्यानाकर्षण करते रहे हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ के 'सम्पादकीय' में भी उन्होंने 'राजरूपक', 'ढोलामारू रा दूहा', 'डिंगल में वीर रस' और 'नाथसिद्धों की बानियां' जैसे ग्रन्थों के संपादन में रही कतिपय भूलों की ओर पाठकों का ध्यान खींचा है । उल्लेखनीय है कि ये सभी ग्रन्थ पं० रामकणं आसोपा, ठा० रामसिंह, प्रो० सूर्यशंकर पारीक, नरोत्तमदास स्वामी, डा. मोतीलाल मेनारिया तथा डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे वरिष्ठ विद्वानों द्वारा संपादित हैं।
___ वस्तुतः राजस्थानी भाषा अपनी स्थान-स्थिति में अक्षुण्ण बनी रहने और निरन्तर लोक-व्यवहृत होने से अति प्राचीन सारस्वत सभ्यता की लोकभाषा वैदिक छन्दस भाषा की मूलभूत विशेषताओं को अपने में ज्यों की त्यों समेटे हुए है। इसलिये उसका वागर्थ जानने को क्षेत्रीय परिप्रेक्ष्य और आंचलिक परिदृश्य का ज्ञान और भान होना नितांत आवश्यक है । 'प्राचीन शिलालेखों में राजस्थानी भाषा' में एतद्विषयक बहुविध प्रमाण संग्रहीत हैं जो पुरष्करणीय हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ में कुल १५३ शब्दों के अर्थ प्रकाशन की चेष्टा की गई है । व्युत्पत्ति खोजने का प्रयास कम है किन्तु प्रयोग उदाहरण जुटाने की चेष्टा प्रायः सर्वत्र दीख पड़ती है । संपादक ने आपबीती का एक प्रसंग दिया है जिसमें तेरापंथी साधु को किसी श्रावक ने दो टीपरी धृत बहराया और उसे 'सीपी' नाम दिया था। लेखक को उसका सही अर्थ व्युत्पत्ति में ही मिला । यदि वह वैदिक वाङ्मय की ओर अभिमुख खण्ड १८, अंक २, (जुलाई-सित०, ९२)
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