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धातु में विडम्बति अत्यन्तं भक्षयति (विडम्ब) अर्थ है और डुम्बति=क्रीडति (डुम्बःक्रीडनम्) दूसरा अर्थ है ।
बहुत से शब्द और लिये जा सकते हैं । संपादक द्वारा संग्रहीत शब्दों से पृथक् भी । जैसे ‘मा माने'=मावैकोनी, पृजी सम्पर्केपजणो, 'जन जनने' =जणनो, 'जुड बन्धने जूड़ो करणो, 'कुडि अनृत भाषणे'=कुडो' 'दस्त विकारे' दस्त, 'लबि अबसंसने'=लबूटणो, रद विलेखने'=रन्दों, रडिव्यवचारे'=रण्डी, 'मिह सेचने' =मेह पावणो, रमु क्रीडायाम् = 'रमणो' इत्यादि अनेकों शब्द लिये जा सकते हैं। हमने यह तुलना 'काशकृत्स्न व्याकरण' से की है जो पाणिनि से पूर्ववर्ती है और ४५० ऐसी धातुएं देता है जो पाणिनि 'धातु पाठ' में नहीं हैं। आश्चर्य है कि उसमें 'थर्व' धातु हिंसार्थ में है जिससे 'अथर्वन्' शब्द का निर्माण होता है । वहाँ ढूंढणा क्रिया की मूल धातु 'दुढि' भी है जो स्कन्दपुरण के काशीखण्ड में प्रयुक्त है-अन्वेषणे दण्ढिरयं प्रथितोऽ स्तिधातुः सर्वार्थ दण्डितया तव ढुण्ढि नाम । इसी प्रकार 'मरति' क्रिया भी (मृधातु) जो १२-१३ वीं सदी के राजस्थानी शिलालेखों में प्रयुक्त है । _ 'राजस्थानी शब्द सम्पदा' में संग्रहीत शब्द बिना किसी अनुक्रम अथवा उपक्रम के हैं और उसी प्रकार उनका अर्थ-संदोहन हुआ है। अच्छा होता यदि इस सबध में और अधिक खोजबीन के साथ भाषा वैज्ञानिक अथवा पारम्परिक भारतीय ढंग से यह प्रस्तुति होती। 'प्रस्तावना' भी घिसीपिटी होने से इस संबंध में कोई दिशानिर्देश नहीं करती। फिर भी राष्ट्र भाषा प्रचार समिति का यह प्रयास विद्वानों के लिए आकर्षण का विषय होने से स्तुत्य और प्रशंसनीय है।
-परमेश्वर सोलंकी २. जैनदर्शन : दिग्दर्शन : कवि-मुनिश्री गणेशमल, प्रकाशक, आदर्श साहित्य संघ, चूरू, प्रथम संस्करण-१९८८ पृष्ठ-३५५, मूल्य--२५ रुपये।
जैन दर्शन : दिग्दर्शन, जैनदर्शन पर मुनिश्री गणेश मलजी द्वारा लिखी गई एक अनुपम कृति है। ऐसा नहीं है कि जैनदर्शन पर इससे पूर्ण इस प्रकार की कृतियां लिखी न गई हो, लेकिन मुनि गणेश जी ने इस पुस्तक को दोहों के रूप में लिखने का जो प्रयास किया है वह अपने आप में अनूठा है। प्रत्येक अध्याय के साथ जो टिप्पण उद्धृत किया है वह भी बहुत ही महत्त्वपूर्ण है और वह दोहों को समझने में मदद करता है। . पुस्तक में कुल २१ प्रकरण हैं, जिनमें जैनदर्शन की व्याख्या है। सामान्यतः किसी दर्शन पर हम मुख्य तीन दृष्टियों से विचार करते हैं-(१)तत्त्वपीमांना (२) ज्ञानमीमांसा (३) आचार मीमांसा। तत्त्वमीमांसा में सत्ता के स्वरूप का विवेचन, ज्ञानमीमांसा में ज्ञान सम्बन्धी प्रश्नों का विवेचन और आचार मीमांसा में नैतिक विचार, मोक्ष का स्वरूप, उसके मार्ग, साधना, नैतिक जीवन आदि महत्त्वपूर्ण प्रश्नों की विवेचना की जाती है । मुनिवर ने इन्ही मुख्य तीन बिन्दुओं का अति विस्तार से विवेचन किया है। इन्होंने अलग-अलग प्रकरणों में विभाजन करके इन तीन मुख्य
खण्ड १८, अंक २, (जुलाई-सित०, ९२)
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