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दिल रो दरियो तो सूख गयो बाणी रा बाला चाल है। सड कां तो सीधी आज बणी, पण बण्या आदमी टेढा है, कंकर तो जमग्या सडकां पर, पण मिनाखों में पड्या बखेडा है. जो भूल्यौ भटक्यो आवै तो सडकां तो पार पुगावै है, पण करै भरोसो मिनखां रो काली धार डबाव है,
ऊपर तो डींगा हाकै है, नीचे गोटाला चालै है ।। इसी प्रकार अपनी एक अन्य रचना में वे कहते हैं
अब धर्म रह्यो है बातां में, घट में तो ज्वाला भमके है, पण माला राखे हाथों में, पढ लिख कर कई वकील बण्या, दुनियां नै न्याव बताव है, बे गिटे जीवती माखी नै, जद नोट सामने आव है, आख्यां नै मीच अंधारो करदे.
मिनख चानणी रातां में । मुनिश्री मोहनलालजी भी गहरी अनुभूति को थोड़े शब्दों में व्यक्त करने वाले एक सिद्धहस्त और क्रांत द्रष्टा कवि हैं। अपनी पुस्तक "तथ और कथ" में वे कहते हैं ।
बडपण है कोयलै रो, के जको कालास नै आप ओढ, हीरै नै दियो, भोम रै हिय रो उजास ,
मकराण स्यूं इधको उजातो है, गार र गोबर स्यूं लिप्यो-पत्यो घर, जठ विना विशेषण रो आदमी रेवै है ।।
आज रै पुतनिक, लारै छोड दी है, आगम जुग री देव कहाण्यां, आज र मिनख,
करदी है साची पुराणां री असुर-कथावां । इनके बाद नवोदित संत-साहित्यकारों की एक पंक्ति और आगे आती है । इसमें मुनिश्री रोशनलालजी की अमरकुमार, सुरसुन्दरी, मुनिश्री कमल कुमारजी का कविता संग्रह मुनिश्री संजय कुमारजी का 'जाग रे जवान", मुनिश्री मुनिसुव्रत कुमारजी का ''गुण धुंघरू", मुनिश्री मोहजीत कुमारजी की "बूंद में बादल" आदि पुस्तके प्रमुख हैं। इस पंक्ति में मुनिश्री विजयकुमारजी ने भी अपनी एक अलग पहचान बनाई है । ये न केवल स्वयं मधुर संगायक हैं अपितु इनकी मधु कलश, स्वर माधुरी, मधु-माया, सुधा खण्ड १८, अंक २ (जुलाई-सित०, ९२)
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