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नाविक के तीर और घाव करे गम्भीर, की उक्ति की सार्थकता का दर्शन मुनिश्री के काव्यकार में स्पष्टतः देखा-परखा जा सकता है। यहां वे वल एक दोहे को बानगी के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है -
मिनखां रे तो तिणखला, है कचरो दुख रास,
पंख्यां रे बै ही बणे, मा' लो सुख आवास ।
साधारणतया गीतों में उपदेश-तत्त्व ज्यादा रहता है। भावुक तथा श्रद्धाशील लोगों पर उसका प्रभाव भी होता है, पर मुनिश्री दुद्धमलजी अपने गीतों में कोरा उपदेश नहीं बांटते अपितु एक जीवन-संदेश देते हैं, जो उनकी जीवंत अनुभूति से उपजा हुआ होता है। 'जागण रो हेलो' के १०८ गीतों के एक-एक पद्य में इस कथन की की सच्चाई की कसौटी की जा सकती है। उसी का एक गीत यहां उद्धृत किया जा रहा है
*संभल कर चालजे रे, है टेढो जग व्यवहार, ढील मत घालजे रे. है पल रो मोल अपार, बीती बात बिसार दे रे भाई ! आगै री संभार ।।ध्र व०॥ ऊंधी चलगत मनतणी रे, पहली इणनै मार, एक ही मार्यो सहु मरै रे भाई ! इन्द्रयां तणा विकार । गुण-अवगुण भेला मिल्या रे, रयो न तनिक विचार, फटक छाज ज्यू धान नै रे भाई ! पटक कांकरा बार । अंवली गति मत धारजे रे, संवलाई में सार, लाज मानखै री सधै रे भाई ! बध आपसी प्यार। चिता रा घेरा घणा रे, घर रो घिरतो भार, कोई न बाधक बणा सकै रे भाई ! जो त हवै अविकार । ढलतो जावै आउखो रे, गल-गल तन हुवै गार,
बुद्ध बखत पर जागज्या रे भाई ! सफल बणा अवतार ।
इस तरह मुनिश्री बुद्धमलजी का राजस्थानी साहित्य की अभिवृद्धि में विशिष्ट योगदान है।
मुनिश्री चौयमलजी, मुनिश्री कानमलजी तथा मुनिश्री गणेशमलजी का नाम भी तेरापंथ के संत-साहित्यकारों में आदर से लिया जाता है। मुनिश्री चौथमलजी मूल में एक महान् वैयाकरण थे, जिन्होंने 'भिक्षु शब्दानुशासन' महाव्याकरण की रचना की थी । अपने जमाने में आपने तेरापंथ धर्म शासन की ख्यात लिखने का कौशलपूर्ण कार्य भी किया था, जिसकी इतिहास लेखन की दृष्टि से अपनी एक महत्ता है । आपका राजस्थानी में चन्द्रसेन--चन्द्रावती का आख्यान भी काफी जनप्रिय रहा है ।
मुनिश्री कानमलजी की प्रमुख रचनाएं है-पायलिप्त, मयरावती, जा सा सा सा, चन्द्रशेखर, डोढ बेटो, धन्नाजाट आदि-आदि । * हरी गुण गापले रे
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तुलसी प्रज्ञा
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