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तेरापंथ के आधुनिक राजस्थानी संत-साहित्यकार (३)
- मुनि सुखलाल
तेरापंथ का आधुनिक काल आचार्यश्री तुलसी के युग से शुरू होता है । आचार्यश्री स्वयं तो एक समर्थ साहित्यकार हैं ही, पर उन्होंने अपने पूरे संघ को जो साहित्य-चेतना प्रदान की है वह अद्भुत और अनुपम है। इसीलिए इस युग में राजस्थानी भाषा में लिखने वालों, संतों-साध्वियों की बाढ़-सी आ जाती है। युवाचार्य श्री महाप्रज्ञजी एवं निकाय-प्रमुख मुनिश्री बुद्धमलजी इन सब में अग्रणी कहे जा सकते हैं । युवाचार्यश्री ने राजस्थानी में जो स्फुट साहित्य लिखा उसकी अपनी एक मौलिकता है । 'श्वास और विश्वास' में संकलित उनकी कुछ कविताओं में एक कविता है 'फूल लारै कांटो', उसके शिल्प पर जरा ध्यान केन्द्रित करें
दिल तो है, पण दर्द कोनी दर्द कोनी जद ही दिल है नहीं तो आज तांई रहतो ही कोनी
कदेई टूट ज्यातो इसी लहजे में वे आगे कहते हैं
बडो सीधो है, पण कनै सत्ता कोनी, सत्ता कोनी जद ही सीधो है, नहीं तो आज तांई रेतो ही कोनी, पेली ही सिधाई पूरी हो जाती। इस तरह मृदु एवं शिष्ट व्यंग्य से परिपूर्ण उनकी ऐसी अनेक रचनाएं हैं।
मुनिश्री बुद्धमलजी ने अपने आपको मातृभाषा से बहुत गहराई से जोड़ा है । अपनी 'उणियारो' पुस्तक में वे लिखते है
उणियारे में और घणा उणियारा है, ऊपर एक अभितर न्यारा-न्यारा है, आंख्या-देखी रो विस्वास निभै कोनी, देख्य में अणदेख्या घणा किनारा है । सचमुच उणियारो राजस्थानी काव्य-साहित्य का एक दुर्लभ हस्ताक्षर है।
इसी तरह आपकी 'मिणकला' तथा 'पगतिया' कृतियां भी अनुभूतियों के अकूत खजाने हैं। राजस्थानी काव्य-कथ्य का प्रमुख माध्यम दोहा-विधा इन दोनों पुस्तकों की भावधारा का सुलझा हुआ तानाबाना है । सचमुच थोड़े में बहुत कह देने वाली ज्यों खण्ड १८, अंक २, (जुलाई-सित०, ९२)
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