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________________ बढ़ाते हुए अन्ततः आत्मा के सौन्दर्य में ही वृद्धि करते हैं । क्योंकि शरीर सौन्दर्य आत्मा के बिना सम्भव नहीं है-शव के लिए सभी आभूषण व्यर्थ होते हैं । आचार्य वामन ने तो सौन्दर्यमलंकारः' कहकर अलंकार को सौन्दर्य का पर्यायवाची ही बना दिया है . भामह की दृष्टि में 'अलंकार' काव्य की रमणीयता के आवश्यक उपादान हैं __रूपकादिरलङ्कारस्तस्यान्यर्बहुधोदितः ।। न कान्तमपि निर्भूषं विभाति वनिताननम् ।। (काव्यालङ्कार, १/१३) आचार्यश्री के शतकों में 'यमक' का प्रयोग सर्वाधिक हुआ है । ऐसा प्रतीत होता है कि जिस प्रकार "उपमा कालिदासस्य" की उक्ति प्रसिद्ध है, उसी प्रकार "यमक विद्यासागरस्य" का आमाणक भी प्रसिद्ध हो जायेगा। यमक का बाहुल्य होने पर भी रस-व्युच्छित्ति नहीं हुई है-यह आपकी बहुत बड़ी सफलता है । यमक के प्रयोग से काव्य में अनुप्रास की मनोहरता भी स्वयमेव परिलक्षित होने लगी है। ___आपके शतकों में अनेक प्रकार के अलंकारों का प्रयोग हुआ है । 'दृष्टान्त' के प्रयोग में आप विशषरूप से सफल हैं । एक से एक बढ़कर नवीन परिकल्पनाओं से युक्त 'दृष्टान्त' का चमत्कार आपके काव्य को अनिर्वचनीय कमनीयता से युक्त कर देता 'कविता तथा छन्द के बीच बड़ा घनिष्ट सम्बन्ध है। कविता हमारे प्राणों का संगीत है, छन्द हृत्कम्पन, कविता का स्वभाव ही छन्द में दोलायमान होना है।' (पल्लव, पृ. ३३) कवि की प्रतिभा का निर्णय उपयुक्त छन्द के चुनाव और उसके स्वाभाविक निर्वाह में हो जाता है । छन्द का सम्बन्ध जीवन की मनोवृत्तियों से है और उन्हीं का स्वाभाविक ज्ञान कवि को होता है।' आचार्यश्री के शतकों में लघुकाय छन्दों का प्रयोग हुआ है । शान्त रस के परिपाक के लिए लघु-कलेवर-छन्द अत्यन्त उपयोगी है । "आर्या" तो आपकी वश्या (सेविका) की भांति भावों का अनुसरण करती चलती है । द्रुतविलम्बित के प्रयोग में भी आपका नैपुण्य दर्शनीय है। उपजाति का प्रयोग भी उतनी ही सफलता के साथ हुआ है। मतः रसके अनुरूप छन्दों का चुनाव कर, कवि ने अपनी विशिष्ट प्रतिभा का परिचय दिया है। आचार्य विद्यासागर जी के शतकों से सुभाषितों के आस्वादन का रस तो प्राप्त होता ही है, योगी के सान्निध्य का लाभ भी मिलता है। संन्यासी कवि के काव्य में अवगाहन करने पर, रसास्वादन के साथ-साथ सत्सङ्गति का फल भी अनायास ही प्राप्त होता जाता है। सन्दर्भः १. हिन्दी काव्य-शास्त्र का इतिहास, पृष्ठ-३३० २. सूर साहित्य, पृष्ठ-१७६ ३. क्षणदा, पृष्ठ-९७ ४. भारतीय काव्य शास्त्र की परम्परा, पृष्ठ-५६२ ५. वही, पृष्ठ-५३४ ६. क्षणदा, पृष्ठ-११९ ७. हिन्दी काव्य-शास्त्र का इतिहास, पृष्ठ-२४२ ८. गीतिकाव्य का विकास, पृष्ठ-२२ ९. संस्कृत गीति काव्य का विकास, पृष्ठ-१२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524571
Book TitleTulsi Prajna 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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