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________________ शान्त रस की निर्भरणी आचार्यश्री के मभी शतक "शान्त रस" पर आधारित हैं । भरतमुनि ने 'शान्तरस' को ही सब रसों का मूल माना है स्वं स्वं निमित्तमासाद्य शान्तादभावः प्रवर्तते । पूननिमित्तापाये च शान्त एवोलीयते ।। [नाट्यशास्त्र, ६/८७] आचार्यश्री ने 'सुनीतिशतकम्' में शृंगार की एक मौलिक व्युत्पत्तिकी है शृंङ्गार एवैकरसो रसेषु, न ज्ञाततत्त्वाः कवयोभणन्ति । अध्यात्मशृंङ्गत्विति रातिशान्तः शृङ्गार एवेति ममाशयोऽस्ति ।। (सुतीतिशतकम् -२२) 'योऽध्यात्म शृङ्ग ऋच्छति, राति ददाति स एव शृङ्गारः।' इस प्रकार शान्त को ही शृंगार कहा जा सकता है । आचार्यश्री के शतकों में 'शान्त-रस' का ऐसा परिपाक हुआ है कि जो भी सहृदय उनके काव्य में अवगाहन करता है, रस सिक्त हो, आध्यात्मिक-आनन्द की मस्ती में डूबने लगता है । शान्त-रस का ऐसा चमत्कार कोई शान्त तपस्वी ही दिखला सकता है । __ शान्त-रस में माधुर्य का प्रसार स्वभावतः अधिक होता है । अतः आचार्यश्री का काव्य माधुर्य-गुण से विभूषित है । प्रसाद का प्रसार तो सभी शतकों में है । समधुर पदों की योजना से आपका काव्य अतिशय रूप से चमत्कारी हो उठा है । आपके शतकों में रसास्वादत करने पर दण्डी की निम्न उक्ति चरितार्थ सी प्रतीत होती है मधुरं रसवद् वाचि वस्तुन्यपि र सः स्थितः। येन माद्यन्ति धीमन्तो मधुनेव मधुव्रताः ।। (काव्यादर्श-१/५१) आपके काव्य के सन्दर्भ में भारवि की निम्न उक्ति भी कही जा सकती है 'प्रवर्तते नाकृतपुण्यकर्मणां प्रसन्नगम्भीरपदा सरस्वती।' अग्निपुराणकार ने गुणों की महत्ता निम्न शब्दों में प्रदर्शित की है अलंकृतमपि प्रीत्यं न काव्यं निर्गुणं भवेत् । वपुष्यललिते स्त्रीणां हारो भारायते परम् (३४६/१) 'रीति' अर्थात् पदसंघटना का सम्बन्ध, शब्द अर्थ से है। इसलिए वह काव्य से सम्बद्ध है । परन्तु फिर भी जिस प्रकार सुन्दर संस्थान मनुष्य के वाह्य व्यक्तित्व की शोभा बढ़ाता हुआ, वास्तव में उसकी आत्मा का ही उपकार करता है इसी प्रकार रीति भी अन्ततः काव्य की आत्मा का ही उपकार करती है । (धवन्यालोक-भूमिका, पृ० १६) आचार्यश्री के श्रमणशतकम् एवं भावनाशतकम् में पांचाली रीति का प्रयोग हुआ है तथा निरंजनशतकम्, परीषहज यशतकम् एवं सुनीतिशतकम् वैदर्भीनीति के उदाहरण हैं। वय के अनुसार आचार्यश्री के काव्य में क्रमशः सारल्य का भी समावेश होता जा रहा है । उनकी आद्यकृतियां कुछ कठिन हैं लेकिन परवर्ती रचनायें अत्यन्त सरल एवं सुबोध हैं । एक बार आचार्यश्री ने स्वयं कहा था-"प्रौढ़ता के साथ सारल्य स्वयमेव आ जाता है।" छन्द और अलंकार अलंकारों की स्थिति आभूषणों की सी है, जो अनित्यरूप से शरीर की शोभा खंड १८, अंक २ (जुलाई-सित०, ९२) १४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524571
Book TitleTulsi Prajna 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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