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संस्कृत-शतकपरम्परा में आचार्य विद्यासागर के शतक
एक परिचय 0 श्रीमती (डॉ.) आशालता मलैया
"काव्य जीवन-प्रकृति का अन्तदर्शन है, उसकी अनुभूति है । यह अनुभूति कोई भावुकताजन्य स्फूति नहीं, न कोई आध्यात्मिक कल्पना है, बल्कि अखण्ड मानव-जीवन के व्यक्तित्व की अनुभूति है।" "अति-प्राकृत में प्राकृत-सौन्दर्य, सीमाहीन में ससीम माधुर्य और अन्तहीन में सान्त भाव देखना ही कवि की साधना है।" ''जीवन में जो कुत्सित, अस्थिर, अमंगलकर और असंस्कृत पशुत्व है, उसी में सुन्दर, शाश्वत, कल्याणमय और संस्कृत देवत्व को ढूंढने के प्रयास में कला का जन्म और उसकी अभिव्यक्ति में कला को सिद्धि है।" "काव्य में कला का उत्कर्ष एक ऐसे बिन्दु तक पहुंच गया है जहां से वह ज्ञान को भी सहायता दे सकता है। क्योंकि सत्य, काव्य का साध्य और सौन्दर्य उसका साधन है। एक अपनी एकता मे असीम रहता तो दूसरा अपनी अनेकता में अनन्त, इसी से साधन के परिचय स्निग्ध खण्ड रूप से साध्य की विस्मयभरी अखण्ड स्थिति तक पहुंचने का क्रम-आनन्द की लहर पर लहर उठाता हुआ चलता है ।" "काव्यानुशीलन से व्यक्ति ऊंचा उठ जाता है और उसके जीवन में सन्तुलन आ जाता है। शृंगार जो लौकिक अनुभव में विषयानन्द का रूप धारण कर लेता है, काव्य में परिष्कृत हो आत्मानन्द के निकट पहुंच जाता है ।" अपने स्रजन से साहित्यकार स्वयं भी बनता है, क्योंकि उसमें नए संवेदन जन्म लेते हैं, नया सौन्दर्यबोध उदित होता है और नए जीवन-दर्शन की उपलब्धि होती है। सारांश यह है कि वह जीवन की दृष्टि से समृद्ध होता जाता है । इसी से साहित्य-सृष्टि का लक्ष्य स्वान्तः सुखाय का विरोधी नहीं हो सकता । पर यह क्रिया अपने कर्ता को बनाने के साथ उसके परिवेश को भी बनाती चलती है। क्योंकि समष्टि में इन्हीं नवीन संवेदनों, सौन्दर्य-बोधों और विश्वासों का स्फुरण होता है।"६ "साहित्य ऐसा होना चाहिए जिसके आकलन से बहशता बढ़े। बुद्धि को तीव्रता प्राप्त हो। जिससे हृदय में एक प्रकार की संजीवनी-शक्ति की धारा बहने लगे । मनोवेग परिष्कृत हो जाये और आत्मगौरव की उद्भावना होकर बह पराकाष्ठा पर पहुंच जाये । रसवती, ऊर्जस्विनी, परिमार्जित और तुली हुई भाषा में लिखे गये ग्रन्थ ही अच्छे साहित्य का भूषण माने जाते हैं ।'' इन सात विचार बिन्दुओं से संस्कृत-शतक परम्परा का अन्तर्भाव 'गीतिकाव्य' के अन्तर्गत होता है । गीति की परिभाषा निम्न प्रकार की जा सकती है-"कविता की मुख्य प्रेरणा आत्मानुभूति है और वही जब स्वाभाविक गतिमय और गेप-स्वर लहरी में प्रकट होती है तो “गीति" हो जाती है । गीतिकाव्य में कवि
खंड १८, अंक २ (जुलाई-सित०, ९२)
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