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अपनी अन्तरात्मा में प्रवेश करता है और बाह्यजगत् को अपने अन्तःकरण में ले जाकर उसे अपने भावों से रंजित करता है । आत्माभिव्यंजन सम्बन्धी कविता गीतिकाव्य में भी छोटे-छोटे गेय पदों में मधुर भावापन्न, आत्मनिवेदन से युक्त स्वाभाविक ही जान पड़ती है।......... "कवि उसमें अपने अन्तर्तम को स्पष्टतया द्रष्टव्य कर देता है । वह अपने अनुभवों और भावनाओं से प्रेरित होकर उनकी भावात्मक अभिव्यक्ति कर देता है । साधारणतः गीत, व्यक्तिगत सीमा में तीव्र सुख-दुःखात्मक अनुभूति का वह शब्दरूप है, जो अपनी ध्वन्यात्मकता में गेय है ।"
भावान्विति, रसान्विति एवं माधुर्य-तीनों संस्कृत गीतिकाव्य के मूल उपादान हैं । "भावप्रवणता" गीतिकाव्य का प्राण है । कवि की रागात्मक अनुभूति का उद्रेक ही “गीति" के रूप में परिवर्तित हो जाता है। “गीति" के माध्यम से कवि अपनी व्यष्टि रूप अनुभूति को सार्वजनीन एवं सार्वभौम बनाकर समष्टि रूप प्रदान करता है । उसका स्वयं का सुख-दुःख विश्व का सुख-दुःख बन जाता है । माधुर्य और प्रसाद का प्रसार संक्षिप्तीकरण एवं गेयात्मकता गीतिकाव्य के अभिन्न अंग हैं । भावान्विति के द्वारा रसान्विति को पुष्ट करना गीतिकाव्य की विशेषता है।
___ संस्कृत गीतिकाव्य दो शैली से लिखे गये हैं-प्रबन्ध शैली और मुक्तक शैली। स्तुतिशतकों की रचना प्रबन्ध शैली में तथा वैराग्य, नीति एवं शृङ्गार शतकों को मुक्तक-शैली के अन्तर्गत माना जा सकता है। अतः संस्कृत शतक परम्परा में गीतिकाव्य तथा मुक्तक काव्य की सभी विशेषताओं का समावेश हो जाता है । मुक्तक की परिभाषा निम्न प्रकार की जा सकती है. मुक्तक उस पद्य को कहते हैं जो परतः निरपेक्ष रहता हुआ भी पूर्ण अर्थ की अभिव्यक्ति में सक्षम हो, चमत्कृति, गुम्फन एवं ध्वनि आदि विशेषताओं के कारण रमणीय हो, रसचर्वना में ब्रह्मानन्द सहोदर हो तथा रसानुभूति द्वारा हृदय को मुक्त बनाने में समर्थ हो।'
प्रस्तुत शतकों के परिचय में गीतिकाव्य का स्वरूप, मुक्तक काव्य की परम्परा. मूलतत्त्व और विशेषतायें तथा गीतिकाव्य में संस्कृत शतकों का स्थान आदि का विवेचन किया गया है। प्रत्येक शतक के उपलब्ध इतिहास के साथ-साथ काव्यशास्त्रीय दृष्टिकोण से उसका अनुशीलन किया गया है। हृदयस्पर्शी, विशिष्ट पद्यों के उद्धरण भी प्रस्तुत किये गये हैं।
मान-मर्दन के लिए भक्ति से अधिक प्रभावशाली अन्य कोई साधन नहीं है । हृदय की विशुद्धि भक्ति के बिना हो ही नहीं सकती। भक्ति एक ऐसा रसायन है, जिसके उपयोग से रजस् और तमस् सत्त्व में परिणत हो सकते हैं। सांसारिक "काम" ही आराध्य की भक्ति में परिवर्तित होकर मुक्ति का साधक बन जाता है । भक्त-हृदय से निःसृत काव्य की धारा जब प्रवाहित होती है तो उसके सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति के कल्मष धुल जाते हैं, अहं विगलित हो उठता है और चेतना अपने स्वाभाविक वैभव को प्राप्त कर लेती है। संस्कृत शतकों के रूप में संस्कृत कवियों की जो निर्मल-भक्ति-धारा प्रस्फुटित हुई है, उन्हें स्तुति-शतक की संज्ञा दी जा सकती है। १४६
तुलसी प्रज्ञा
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