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________________ लब्धि की प्राप्ति कैसे होती है ? भगवान ने प्रत्युत्तर देते हुए कहा-जो व्यक्ति छह महीने तक निरन्तर बेले-बेले (दो दिन का तप) की तपस्या करता है, पारणे में मुट्ठी भर कुल्माष एक चूलुभर गर्म जल के साथ खाता है और आतापनभूमि में सूर्याभिमुख होकर ऊर्ध्वबाहु बन कर आतापन लेता है उसे छह मास के भीतर यह लब्धि प्राप्त हो जाती है ।" २४. शीततेजोलेश्या लब्धि ___यह तेजोलेश्या की प्रतिपक्षी लब्धि है। इसमें तेजोलेश्या को प्रतिहत करने की शक्ति निहित है । इसका प्रयोग करुणा से ओतप्रोत होकर व्यक्ति तेजोलेश्या से उपहत मनुष्य के प्रति करता है । भगवान् महावीर ने वैश्यायन बालतपस्वी द्वारा छोडी हुई तेजोलेश्या लब्धि को शीततेजोलेश्या लब्धि से ही निरस्त किया था ।२२ २५. आहारक लब्धि जिस लब्धि से आहारक शरीर का निर्माण किया जाए वह आहारकलब्धि है। इस लब्धि के अधिकारी चतुर्दश पूर्वधर होते हैं। महाविदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों के पास जाने के लिए आहारकशरीर का निर्माण करते हैं। तीर्थंकरों के समीप नाने के तीन कारण हैं--(१) महाविदेह क्षेत्र के तीथंकरों का अतिशय देखने के लिए (२) अर्थ विशेष को जानने के लिए और (३) सन्देह का निवारण करने के लिए।" २६. वैकुविक लब्धि जिससे इच्छित रूप बनाया सके वह वैकुविक लब्धि है ।२२ २७. अक्षीणमहानस लब्धि जो रसोई समाप्त नहीं होती वह अक्षीणमहानस है। अक्षीणमहानसलब्धि को प्राप्त करने वाला जब तक स्वयं भोजन नहीं करता तब तक रसोई में बना भोजन चाहे कितने ही व्यक्ति खा ले, समाप्त नहीं होता । उसके भोजन करने पर वह समाप्त हो जाता है । २५ २८. पुलाक लब्धि जिस व्यक्ति को यह लब्धि प्राप्त होती है उसकी शक्ति इतनी बढ़ जाती है कि वह चाहे तो चक्रवर्ती की सेना-सदृश विशाल सेना, वाहन आदि को चूर-चूर कर सकता है । इस लब्धि की प्राप्ति तप और श्रुत की आराधना से होती है ।२६५ २६. विद्याधर लब्धि जिससे आकाश में गमन किया जा सके ऐसी विद्या को धारण करने के सामर्थ्य को विद्याधर लब्धि कहते हैं । २७ उपरोक्त लब्धियों में अर्हत् लब्धि, चक्रवर्ती लब्धि, बलदेव लब्धि, वासुदेव लब्धि, संभिन्न श्रोत लब्धि, चारणलब्धि, पूर्वधरलब्धि, गणधर लब्धि, पुलाकलब्धि और आहारकलब्धि--ये दश लब्धियां भव्य स्त्रियों को प्राप्त नहीं होती। अभव्य पुरुषों को इन दश लब्धियों के अतिरिक्त केवली लब्धि, ऋजुमति लब्धि और विपुलमति लब्धि भी प्राप्त नहीं होती। अभव्य स्त्रियों को इन तेरह लब्धियों के अतिरिक्त १३६ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524571
Book TitleTulsi Prajna 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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