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________________ १५, १६, १७, १८. अर्हत् लब्धि, चक्रवर्ती लब्धि, बलदेव लब्धि, वासुदेव लब्धि ये चारों लब्धियां शारीरिक सामर्थ्य की दृष्टि से गृहीत हैं । अर्हत् का शारीरिकसामर्थ्य अपरिमित होता है अतः उसे लब्धि कहा गया है । चक्रवर्ती का शारीरिक बल वासुदेव के शारीरिक सामर्थ्य से द्विगुणा होता है अतः उसे लब्धि कहा गया है । बलदेव का शारीरिक बल वासुदेव के शारीरिक सामर्थ्य से आधा होता है अतः उसे लब्धि कहा गया है । वासुदेव में इतना शारीरिक सामर्थ्य होता है कि सोलह हजार राजा सांकल से बंधे हुए वासुदेव को यदि चतुरंगिणी सेना से खींचें तो भी वे उसे खींच नहीं सकते हैं, अतः उसे लब्धि कहा गया है । " १६. क्षीरमधुसर्पिराश्रव लब्धि क्षीराश्रव लब्धि, मध्वाश्रव लब्धि, सर्पिराश्रव लब्धि ये तीन लब्धियां हैं । किन्तु यहां तीनों एक साथ ही विवक्षित हैं । इन लब्धियों के प्रभाव से व्यक्ति की वाणी अत्यन्त मधुर और मानसिक आह्लाद को उत्पन्न करने वाली होती है तथा उसके पात्र में आया हुआ स्वादिष्ट पदार्थ भी क्षीर, और घृत की तरह स्वादिष्ट हो जाता है । मधु १६ २०. कोष्ठकबुद्धि लब्धि कोष्ठ की तरह जिसकी बुद्धि है धान्य सुरक्षित रहता है उसी प्रकार कोष्ठबुद्धि है । कोष्ठबुद्धि लब्धि को हुए सूत्र और अर्थ को कालान्तर में होता है ।' १७ २१. पदानुसारी लब्धि जो बुद्धि एक सूत्र-पद को सुनकर शेष अश्रुत पदों को यथार्थ जान लेती है वह पदानुसारी लब्धि है । " २२. बीजबुद्धि लब्धि वह कोष्टबुद्धि है । जैसे कोठे में रखा हुआ जो बुद्धि कालान्तर में भी नष्ट नहीं होती वह प्राप्त करने वाला आचार्य के मुख से सुने भी ज्यों का त्यों धारण करने में समर्थ जो बुद्धि एक अर्थ पद का अनुसरण कर शेष अश्रुत यह लब्धि गणधरों को लेती है वह बीजबुद्धि लब्धि है । होती है । " २३. तेजोलेश्या लब्धि Jain Education International इस लब्धि का धारक व्यक्ति अपने प्रतिद्वन्द्वी के प्रति क्रोध के वशीभूत होकर अपने मुख से इतना अग्निसदृश तेज का निस्सारण करता है जिससे अनेक योजन दूरस्थ वस्तु को जलाया जा सकता है । ' भगवती सूत्र में इस लब्धि की प्राप्ति का उपाय भी बतलाया गया है । गोशालक ने श्रमण भगवान् महावीर से पूछा - तेजोलेश्या खंड १८, अंक २ (जुलाई-सित०, ९२ ) प्रचुर अर्थ - पदों को जान सर्वोत्कृष्ट रूप से प्राप्त For Private & Personal Use Only १३५ www.jainelibrary.org
SR No.524571
Book TitleTulsi Prajna 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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